अपनी अनदेखी न करें बेबी की देखभाल में
बच्चे के जन्म के साथ ही मां के पास उसके पालन-पोषण की अतिरिक्त जिम्मेदारी आ जाती है। पहले किये जाने वाले कुछ काम छूट जाते हैं या उतने परफेक्ट नहीं हो पाते। लेकिन परिजनों की उम्मीदों पर खरा उतरने का प्रेशर उसे कचोटता है। ऐसे में जरूरी है कि वह खुद के साथ बेहतर बर्ताव करे। यह विचार ही गलत है कि बच्चे को जन्म देने के बाद भी महिलाएं पहली जैसी हो जायें।
मेरी परवरिश ऐसे माहौल में हुई जिसमें हर समय व जीवन के हर पहलू में परफेक्शन की उम्मीद की जाती थी। सुबह निर्धारित समय पर उठाना, अपने आप स्कूल के लिए ड्रेस करना, अच्छी छात्रा होना, केवल ‘अच्छी लड़कियों’ से ही दोस्ती करना और सिर्फ स्कूल की किताबों में ही डूबे रहना। उम्मीद के मुताबिक यह सब व्यवहार करने में अगर कहीं कोई चूक हो जाती तो ताना मिलता- ‘कल को जब यह लड़की अपनी ससुराल जायेगी तो वहां क्या करेगी? नाक कटवा देगी।’
स्वभाव में परफेक्शन का आना
ऐसा लगता था जैसे मैं जो परवरिश पा रही हूं उसकी एकमात्र बस शादी ही है। इन नियमों से कोई परेशानी न थी, क्योंकि मुझे इनकी आदत पड़ चुकी थी। बहरहाल, ऐसे में आश्चर्य नहीं कि कोई काफ़ी हद तक परफेक्शनिस्ट बन जाए। मेरे इस गुण की हर कोई तारीफ करता, लेकिन इसके साथ ही मेरे अंदर जो बेचैनी व आत्म-संदेह की भावना उत्पन्न हुई उसका तो मुझे अकेले ही सामना करना पड़ा।
बेबी केयर के साथ खुद से ढेरों उम्मीदें
अपनी ज़िंदगी के ज्यादातर हिस्से में मैं एक के बाद एक चमत्कार करती रही। लेकिन अपने पहले बच्चे को जन्म देने के बाद मुझे अहसास हुआ कि मेरे पास समय कम और काम अधिक है। यूं भी कोई चीज़ आपको कम समय में अधिक काम करने के लिए तैयार नहीं करती है, परफेक्शन के साथ काम करना तो दूर की बात। पोस्ट-पार्टम के धुंधलके से निकलने के बाद मुझे अहसास हुआ कि बेबी की केयर करने के अतिरिक्त मुझसे और भी काम करने की उम्मीद की जा रही थी। अब यह समस्या नहीं थी या कम से कम सम्पूर्ण समस्या नहीं थी। मुश्किल यह थी कि मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि बेबी को जन्म देने से पहले मैं जिस तरह से काम करती थी, उस तरह क्यों नहीं कर पा रही थी।
उलझन के बीच एक फोन ने सुझायी राह...
मेरा घर मेरी ही पकड़ से क्यों निकलता जा रहा था जबकि कल तक वह मेरे पूर्ण नियंत्रण में था? घर पर अच्छा भोजन तैयार करना क्यों असंभव होता जा रहा था? मेरा परफेक्शन कहां चला गया था? उसे मैं कैसे वापस ला सकती थी? एक दिन इन सवालों से उत्पन्न ख्यालों व आंसुओं में मैं डूबी हुई थी और बेबी को सुलाने की कोशिश कर रही थी कि तभी मौसी का फोन आ गया। मैंने उन्हें अपनी हालत के बारे में सब कुछ बता दिया। उन्होंने मेरी बात बहुत ध्यानपूर्वक सुनी। वह बोलीं, ‘जब मैं अपने पहले बच्चे को जन्म देने के छह माह बाद घर लौटी थी तो मुझे अहसास हुआ था कि जैसे मेरे दिमाग ने काम करना ही बंद कर दिया हो। लगा कि मैं बीमार हूं, लेकिन मेरी मां ने बताया कि यह सामान्य बात है और समय के साथ सब ठीक हो जायेगा।’
खुद के साथ बेहतर बर्ताव
मौसी ने आगे बताया - ‘मेरे इर्द-गिर्द हर कोई ऐसे व्यवहार कर रहा था जैसे मैं बच्चे को जन्म ही न दिया हो। उम्मीद कर रहे थे कि पहले की तरह ही काम करूं। मैं खुद से भी यही उम्मीद कर रही थी। एक दिन मैंने पूरे घर में झाड़ू लगाई, फिर भी कुछ हिस्सों में अच्छे से सफाई नहीं हो पायी। सारा दिन मैं खुद को कोसती रही कि मैं कोई काम ठीक से नहीं कर पाती। अचानक मुझे ख्याल आया कि मैं अपने साथ यानी अपने तन-मन के साथ अच्छा व्यवहार नहीं कर रही हूं। इसलिए मैं उठी, रसोई में गई और अपने लिए स्वादिष्ट व्यंजन तैयार किये। इन्हें खाकर मुझे अच्छा महसूस हुआ। यह पहले से बेहतर था। अगली सुबह से जब भी मैं कोई काम करती तो अपने आप से कहती - यह पहले से बेहतर था।’
मौसी की सीख
मौसी ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, ‘मेरी प्यारी बेटी सुनो, जब बच्चा जन्म लेता है तो यह अलग देश में जाने जैसा होता है जिसकी भाषा, नियम व रीति-रिवाजों को तुम्हें सीखना होता है। यह विचार गलत है कि बच्चे को जन्म देने के बाद भी महिलाएं पहली जैसी हो जायें।’ इस साधारण वाक्यांश ‘यह पहले से बेहतर है’ ने मेरी ज़िंदगी बचा दी। इसने मुझे सिखाया कि उस दुनिया में कैसे धीमे होना है, जो मांओं को निरंतर परफेक्शन लाने की ओर धकेल रहा है, जबकि वह डिप्रेशन व आत्मग्लानि की खाई में गिरती जा रही हैं। मेरी समझ में आया कि बच्चे की केयर करते हुए भी अनेक काम करना संभव है, लेकिन हर काम करना मुमकिन नहीं है। मैंने अपने आपसे कहा कि मेरा प्रयास पर्याप्त है और ‘यह पहले से बेहतर है’। -इ.रि.सें.