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खान-पान का अनुशासन बचाए अजीर्ण से

जीवनचर्या व खानपान में गड़बड़ी पाचन तंत्र को नुकसान पहुंचाती है। लगातार पाचन खराब रहने से अजीर्ण होता है जिससे आगे शरीर में नये रोग पनपते हैं। अजीर्ण से बचाव के लिए आहार-विहार का अनुशासन आवश्यक है। वहीं कुछ...
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जीवनचर्या व खानपान में गड़बड़ी पाचन तंत्र को नुकसान पहुंचाती है। लगातार पाचन खराब रहने से अजीर्ण होता है जिससे आगे शरीर में नये रोग पनपते हैं। अजीर्ण से बचाव के लिए आहार-विहार का अनुशासन आवश्यक है। वहीं कुछ आयुर्वेदिक औषधियां भी कारगर हैं।

आज की व्यस्त जीवनशैली में, मनुष्य की अधिकतर गतिविधियां यन्त्रवत होने से उसके भोजन करने का कोई समय निश्चित नहीं हो पाता। वहीं जाने-अनजाने में वह मिलावटी अन्न का सेवन भी कर रहा है। फास्ट-फूड और पेय पदार्थों के प्रयोग के साथ-साथ मानसिक तनाव उसके पेट के रोगों में वृद्धि कर रहे हैं। जिनमें से अजीर्ण रोग की समस्या तेजी से बढ़ रही है। अजीर्ण रोग आगे अनेक रोगों का जनक है। भोजन का ठीक से न पचना न केवल कष्टकारी है अपितु अनेक दुःखदायी रोगों को जन्म देता है। जब भोजन पाचनाग्नि से पूर्णतः नहीं पचता, तो शरीर में ‘आम’ नामक विषाक्त द्रव्य बनता है, जो रोगजनक तत्व है ।

बीमारी के मुख्य कारण

आयुर्वेद में अजीर्ण के अनेक कारण बताए गए हैं जैसे भूख से अधिक भोजन करना, पहले किये गये भोजन के न पचने पर पुनः भोजन करना , भोजन का समय निश्चित न होना वहीं भारी, तैलीय एवं मीठे खाद्य पदार्थों की अधिकता और अत्यधिक जल का सेवन। भूख न लगने पर भी खाना, मानसिक तनाव में भोजन, तथा व्यायाम या शारीरिक श्रम का अभाव भी अजीर्ण को जन्म देते हैं। दीर्घकाल तक अजीर्ण रहने से पाचनशक्ति क्षीण होकर उदर रोग, अर्श, व ग्रहणी जैसे विकारों को जन्म देती है।

अजीर्ण के प्रकार

आयुर्वेद ने अजीर्ण के चार प्रकार बताये हैं- जैसे , विष्टब्ध अजीर्ण जे वात वृद्धि से होता है। इसमें भोजन के बाद भारीपन, उदरशूल, वायु की गतिशीलता में रुकावट होती है। विदग्ध अजीर्ण पित्त वृद्धि से उत्पन्न होता है। इसके खट्टी डकार, जलन, प्यास, उल्टी और मुख में कड़वाहट जैसे लक्षण हैं। आमाजीर्ण कफ वृद्धि से होता हैं । इसमें शरीर में भारीपन होता है आंखों पर शोथ होता है। भोजन करने के बाद आने वाली डकार के समान डकार आती है व लार टपकती है। वहीं रसशेषाजीर्ण में भोजन में अरुचि व हृदय स्थान पर पीड़ा होती है।

सामान्य लक्षण

अजीर्ण में भूख न लगना, पेट भारी रहना, डकार आना, अपच, सिरदर्द, अंगों में थकान, नींद अधिक आना, तथा कभी-कभी बुखार, उल्टी आना, कमजोरी और गंभीर स्थिति में मृत्यु तक हो

सकती है।

ऐसा हो आहार-विहार

अजीर्ण एवं पाचन विकारों से बचाव के लिए आहार-विहार का अनुशासन आवश्यक है। भोजन नियत समय पर, मध्यम मात्रा में और प्रसन्नचित्त होकर करें। अति-भोजन, भारी एवं असात्म्य यानी हानिकारक पदार्थ, ठंडे पेय और बासी भोजन से बचें। मूत्र आदि प्राकृतिक वेग कभी न रोकें। आमाजीर्ण में उपवास रखना सबसे श्रेष्ठ है। विदग्धजीर्ण में वमन द्वारा शरीर शुद्ध कर लेना चाहिए। विष्टबध अजीर्ण में स्वेदन अर्थात पसीना लाने वाली प्रक्रिया और रसशेषाजीर्ण में शयन, विश्राम और स्वेदन श्रेष्ठ फलदायी है।

कुछ आयुर्वेदिक नुस्खे

अजीर्ण होने पर भोजन में लहसुन, अदरक, हींग, काली मिर्च, अजवाइन, मेथी और धनिया का प्रयोग करें। वहीं करेला, परवल, बैंगन, पेठा, तीखे एवं कटु रसयुक्त पदार्थ अग्निदीपन में सहायक हैं। घी और तेल का सेवन अधिक न करें। लेकिन रूखे आहार से बचें। स्वेदन पाचन क्रिया सक्रिय करता है। पिप्पली, हरड़,सैन्धव लवण व सोंठ चूर्ण को उष्ण जल के साथ लेने से अपक्व भोजन पचता है। हरीतकी और पिप्पली चूर्ण लेने से विदग्धाजीर्ण में लाभ होता है। कच्ची मूली का प्रयोग करना चाहिए। गुनगुने जल का प्रयोग करें।

किस द्रव्य से अजीर्ण में कौनसा उपाय?

आयुर्वेद के ग्रन्थों में विभिन्न द्रव्यों के सेवन से होने वाले अजीर्ण के लिए चिकित्सा बतायी है। यथा कटहल को अधिक मात्रा में खा लिया जाए तो उसके अजीर्ण को दूर करने के लिए केले का सेवन करना चाहिए। केले का अगर अजीर्ण हो तो घी का प्रयोग करना चाहिए। नारियल के सेवन से उत्पन्न अजीर्ण का नाश चावलों के सेवन से होता है। चिरौंजी के बीजों के अतिसेवन से हुए अजीर्ण में हरीतकी का सेवन उचित है। खर्जूर और सिंघाड़ा का अजीर्ण दूर करने के लिए सोंठ चूर्ण और नागरमोथा का प्रयोग करें। शहद का अजीर्ण नागरमोथे से दूर होता है। साठी चावल का पाचन दही के पानी से और गेहूं का पाचन ककड़ी से सुगमता से होता है। जिमीकन्द का पाचन गुड़ के सेवन से आसानी से होता है। शरीर स्वस्थ रहे और खाया हुआ भोजन हमारे शरीर का पोषण एवं संवर्धन करे उसके लिए आहार सेवन के नियमों का पालन करना चाहिए। भोजन तभी करें जब पिछला आहार पच चुका हो, और अजीर्ण की स्थिति में उपवास या लघु आहार ही सर्वश्रेष्ठ औषधि है। जो व्यक्ति नियमित, सात्म्य और ऋतु-अनुकूल आहार-विहार की विधि अपनाता है, उसे चिकित्सक की आवश्यकता बहुत कम पड़ती है।

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