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सुविधा और मनोविज्ञान—बाज़ार से बेज़ार होती हसरतें

यात्रा
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जब हम यात्रा पर निकलते हैं, तो आराम, सुविधा और समय की बचत हमारी प्राथमिकता होती है। ऐसे में हम इस बात पर ध्यान नहीं देते कि इन सुविधाओं की कीमत क्या है। हमारे निर्णय सिर्फ ज़रूरतों से नहीं, बल्कि उस मनोविज्ञान से भी प्रभावित होते हैं, जो हमें खर्च करने के लिए प्रेरित करता है। सुविधा, मजबूरी और मन की यह मिली-जुली चाल हमें एक महंगी दुनिया में ले जाती है।

आप कहीं यात्रा पर निकले हों और स्टेशन पर बैठे ट्रेन आने की प्रतीक्षा कर रहे हों। इस इंतजार की घड़ी में मन प्लेटफार्म पर आसपास बिक रही चीजों की ओर ललचाता जरूर है। फिर आप चाहें या न चाहें मुरमुरे, चिप्स, बिस्किट या चाय-कॉफी के स्टॉल तक पांव खुद-ब-खुद पहुंच जाते हैं।

लेकिन इसके ठीक विपरीत एयरपोर्ट पर बिक रही चीजों को देख अक्सर हम आंखें फेर लेते हैं। कारण वहां हर चीज की कीमत बहुत ज्यादा होना है। यहां तक कि एक कप चाय या कॉफी के साथ कुकीज़ की कीमत भी पांच सौ रुपये होती है। एक पेस्ट्री करीब साढ़े चार सौ की मिलती है एयरपोर्ट पर।

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ऐसे में तो अपने लिए स्नैक्स लेकर एयरपोर्ट पर जाना भला लगता है। क्योंकि सुविधा और समय की बचत के लिए फ्लाइट लेना तो सही है। लेकिन इतने महंगे स्नैक्स लेने से तो बचा ही जा सकता है। यहां चीजों की बढ़ी कीमत का एक कारण यह भी है कि वहां दुकान लगाने के लिए उन्हें कई तरह के टैक्स देने पड़ते हैं। फिर यहां का मेंटेनेंस चार्ज भी लगता है। तो ऐसे में दुकानदारों को चीजों की कीमत बढ़ानी पड़ती है। हालांकि, प्रतिदिन कितनी चीजें बिकती हैं यह सोचने वाली बात है। अपनी हवाई यात्राओं के दौरान महसूस किया कि कुछ लोग वहां शौक से खरीदते हैं तो कुछ मजबूरी में। कुछ लोग सेल्फी लेने या इंप्रेशन दिखाने के लिए भी कुछ न कुछ खरीदते हैं। बहरहाल, एयरपोर्ट पर चीजों की इतनी कीमत क्यों होती हैं, यह जानने की कोशिश करते हैं… कि क्या यह सिर्फ सुविधा की कीमत है या इसके पीछे कोई आर्थिक मजबूरी भी है?

ऊंचा किराया और संचालन लागत

एयरपोर्ट के अंदर किसी भी दुकान या रेस्तरां के लिए किराया आम बाजार या मॉल से कई गुना ज़्यादा होता है।

लीज़ कॉस्ट : एयरपोर्ट अथॉरिटी, ऑपरेटर्स से प्रीमियम रेट लेती है।

ऑपरेशन कॉस्ट : हर स्टाफ का सिक्योरिटी पास, 24×7 बिजली, एयर-कंडीशनिंग और सुरक्षा नियमों का पालन।

इन खर्चों का सीधा असर वस्तुओं की अंतिम कीमत पर पड़ता है।

सीमित प्रतिस्पर्धा और कैप्टिव मार्केट

सिक्योरिटी जांच के बाद यात्री एयरपोर्ट के अंदर ‘कैप्टिव ग्राहक’ बन जाते हैं। उनके लिए बाहर जाकर दूसरे विकल्प तलाशना संभव नहीं हो पाता।

कम दुकानों और सीमित प्रतिस्पर्धा के कारण विक्रेता पर कीमत कम करने का दबाव नहीं होता। साथ ही लॉजिस्टिक और सप्लाई चेन का अतिरिक्त खर्च भी वहन करना पड़ता है। एयरपोर्ट में सामान पहुंचाने के लिए सुरक्षा जांच, स्पेशल परमिट और अलग डिलीवरी टाइम-स्लॉट होते हैं। स्टोरेज के लिए भी जगह महंगी होती है। इस वजह से बेसिक पानी और स्नैक्स भी महंगे हो जाते हैं।

ब्रांडिंग और ट्रैवल-लाइफ़ स्टाइल

कुछ ब्रांड एयरपोर्ट को ‘लक्ज़री लोकेशन’ मानते हैं। उनका तर्क होता है कि यहां ग्राहक छुट्टी, बिज़नेस ट्रिप या किसी खास मौके पर आते हैं और ऐसे समय वे कीमत पर उतना ध्यान नहीं देते। साथ ही विक्रेता उनकी पसंद के ब्रांड की इमेज बनाए रखने के लिए भी कीमतें कम नहीं करते बल्कि उल्टा ‘लक्ज़री’ अनुभव देने के लिए ऊंची कीमत रखते हैं। इस ‘ट्रीट मोड’ मानसिकता का सीधा लाभ विक्रेता को मिलता है।

यात्रियों की संख्या

रेलवे स्टेशन की तुलना में एयरपोर्ट पर चीजों की बढ़ी कीमतों की एक वजह यात्रियों की संख्या भी है। रेलवे स्टेशन पर यात्रियों के साथ दूसरे लोग भी स्टेशन परिसर में मौजूद होते हैं। जबकि एयरपोर्ट पर केवल यात्रियों के प्रवेश की ही अनुमति होती है। जिससे चीजों के क्रेताओं की संख्या कम हो जाती है। लेकिन इस बात से एयरपोर्ट की मेंटेनेंस और सुरक्षा में कमी नहीं होती। इन सब बातों का भी प्रभाव पड़ता है उनकी कीमतों पर।

दरअसल एयरपोर्ट प्राइसिंग का मनोविज्ञान कुछ इस तरह से काम करता है जैसे एक चालाक जादूगर आपकी जेब हल्की कर दे और आपको महसूस भी नहीं हो। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि बाज़ार आपके और हमारे इस मूड को बहुत बढ़िया तरीके से समझता है। फिर उसके अनुसार हमारी जेब पर कैंची चलाने का काम करता है। इसलिए अपने इस मनोविज्ञान को थोड़ा खुद भी समझें…।

ट्रैवल मूड

यात्रा पर जाते समय हम पहले से ही ‘ट्रीट मोड’ में होते हैं, यानी खुद को या दूसरों को कुछ अच्छा देने का मन। छुट्टियों या किसी खास सफर की शुरुआत में लोग पैसों के मामले में ज़्यादा ढीले हो जाते हैं। जमकर घूमना, शॉपिंग, अच्छा खाना-पीना और खूब सारी तस्वीरें लेना। इन सब के लिए एयरपोर्ट एक खूबसूरत जगह होती है। इसलिए कई बार लोग कीमत से समझौता कर लेते हैं।

‘वन-टाइम’ सोच

यात्रा करते समय कई बार हम कीमत को लेकर उतना नहीं सोचते। यही मनोविज्ञान एयरपोर्ट पर भी काम करता है। हम सोचते हैं, ‘कोई बात नहीं, ये तो बस एक बार का खर्च है’। ये सोच दाम को लेकर हमारी सतर्कता कम कर देती है, खासकर जब सफर का उत्साह ज़्यादा हो।

सीमित विकल्प का दबाव

एयरपोर्ट पर ट्रेन की तुलना ज्यादा सिक्योरिटी चेकिंग होती है। वहां की व्यवस्था भी अलग होती है। आपका सामान पहले ही जमा ले लिया जाता है। इन सब औपचारिकता के पूरी हो जाने के बाद आप बाहर नहीं जा सकते और समय भी सीमित होता है। इस ‘नो-च्वॉयस’ स्थिति में दिमाग दाम की तुलना कम करता है और जो सामने है वही खरीद लेता है। थका हुआ दिमाग छोटे-छोटे वित्तीय निर्णयों में आलसी हो जाता है और सोचता है ‘बस, जो चाहिए, ले लो’।

पैसे की धारणा में बदलाव

एयर टिकट, ट्रेन टिकट की तुलना में काफी महंगे होते हैं। साथ ही एयरपोर्ट तक पहुंचने के लिए भी हम काफी किराया दे चुके होते हैं। इसलिए भी 200-300 रुपये की महंगी कॉफी उन खर्चों के सामने छोटी रकम लगने लगती है। ये ‘रिलेटिव स्पेंडिंग’ का असर है।

एयरपोर्ट की स्थितियों को देखकर चीज़ों की ऊंची कीमतें समझ में आती हैं। लेकिन वे अगर कुछ सही दाम में मिलती तो यात्रियों को ज्यादा सुविधा होती। लोग आराम से कुछ खरीद पाते। ऐसा नहीं कि इन्हें कम नहीं किया जा सकता। कम करने के संभावित उपाय हो सकते हैं…।

मूल्य नियंत्रण नीति

एयरपोर्ट अथॉरिटी द्वारा कुछ आवश्यक वस्तुओं (जैसे पानी, चाय-कॉफी, बेसिक स्नैक्स) के लिए अधिकतम मूल्य तय किया जा सकता है। ऑस्ट्रेलिया, दुबई और कुछ यूरोपीय एयरपोर्ट्स में ‘फेयर प्राइस शॉप्स’ मॉडल अपनाया गया है। जहां बेसिक आइटम बाहर जितने में मिलते हैं, उसी रेट पर उपलब्ध होते हैं।

लो-कॉस्ट/फेयर-प्राइस कियोस्क

सिक्योरिटी चेकअप के बाद ‘कम दाम की दुकानें’ (जैसे रेलवे स्टेशन पर जनरल स्टोर) बनाई जाएं, जिन पर सरकारी निगरानी हो। ये कियॉस्क आमतौर पर हवाई अड्डे के टर्मिनल में स्थित होते हैं। जो कि स्नैक्स, दवाएं और पेय बेचते हैं। भारत में हाल ही में केंद्र सरकार और सिविल एविएशन की पहल से नेताजी सुभाषचंद्र बोस एयरपोर्ट पर 2024 में और 2025 में चेन्नई, पुणे और अहमदाबाद एयरपोर्ट पर भी ‘उड़ान यात्री कैफे’ की शुरुआत हुई है।

रेंट और फीस में रियायत

दुकानों का कम किराया रखकर या रियायती परमिट देकर ऑपरेशन कॉस्ट घटायी जाए, ताकि वे कीमतें कम रख सकें। वहीं छोटे लोकल वेंडर्स को मौका दिया जाए, सिर्फ बड़े ब्रांड को नहीं।

ऑनलाइन ऑर्डर/प्री-बुकिंग सुविधा

यात्री टिकट बुक करते समय ऑनलाइन भोजन या जरूरी सामान बाहर के रेट पर प्री-ऑर्डर कर सके और एयरपोर्ट पर पिकअप करे। इससे यात्रियों को महंगी दुकानों पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा।

कीमतों में पारदर्शिता

एयरपोर्ट पर सभी दुकानों के बाहर रेट बोर्ड लगाना अनिवार्य किया जाए, ताकि यात्री तुलना कर सकें। बारकोड स्कैन से एमआरपी चेक करने की सुविधा दी जाए। ताकि यात्रियों को चीजों की सही कीमत का पता चल सके।

अगर एयरपोर्ट पर बिकने वाली चीजों (विशेषकर जरूरी) की कीमतों पर निगरानी रखी जाए तो उनकी मांग भी बढ़ेगी। ज्यादा से ज्यादा लोग अपनी जरूरत के हिसाब से उन्हें खरीद पाएंगे। न कि उनकी कीमत देख आगे बढ़ जाएंगे या एक कप चाय पीने के लिए भी एयरपोर्ट से बाहर निकलने की प्रतीक्षा करेंगे।

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