देश-विदेश में लाखों साधकों के जीवन में अध्यात्म व योग के जरिये बदलाव लाने वाले हिमालय के साधक ग्रैंडमास्टर अक्षर का मानना है कि आध्यात्मिकता से इतर होली का पर्व हमें जीवन की कृत्रिमताओं से मुक्त होकर सहजता के जीवन-रंग में सराबोर होने का अवसर देता है। यह रंगोत्सव मानवता के रंग में डूबकर हमें असीम आनंद की अनुभूति कराता है। कटुताओं को भूल प्रेम, शांति और खुशी की ऊर्जा साझा करने का अवसर देता है…
वसंत की दस्तक और कष्टकारी शीत की विदाई के साथ ही होली का पर्व ऐसे समय पर आता है जब प्रकृति अपने यौवन पर होती है। इस पर्व के साथ तमाम पौराणिक व लोककथाएं जुड़ी हैं। पूरे देश में भारतीय कैलेंडर के अनुसार फाल्गुन माह में मनाया जाना वाला यह महापर्व अहम् की अस्मिता को तिलांजलि देकर रंगमय होने का पर्व है। कृत्रिमताओं से मुक्त होकर सहज होने का पर्व है। सही मायने में यह किसी विश्वास व पंथ का पर्व नहीं है। जीवन की आपाधापी से मुक्त होकर जीवन की मधुरता को करीब से महसूस करने का लोकपर्व है। यह जीवन की एकरसता को तोड़कर खुशी व सद्भाव में सराबोर होने का रंगोत्सव है।
लोकपर्व के पौराणिक संदर्भों पर दृष्टिपात करें तो तप से हासिल कई वरदान और रहस्यमय शक्तियां पाने वाले हिरण्यकश्यप के अहंकार मर्दन की कथा बताता है यह पर्व। उसकी इच्छा है कि वह अपने समय के भगवान के रूप में पूजा जाये। हालांकि, उसके पुत्र प्रह्लाद के लिए परमात्मा की शक्तियां और आध्यात्मिक साधनाएं पवित्र अर्थ रखती हैं। जिनका लक्ष्य मानवमात्र का कल्याण है। वह अहंकार में डूबे अपने पिता को भगवान मानने से इनकार करता है। वह अपने पिता को समझाता है कि ब्रह्मांड के भगवान विष्णु ही हैं। हिरण्यकश्यप अपने पुत्र की भक्ति, भगवान विष्णु के प्रति अडिग विश्वास पर इस हद तक क्रोधित हुआ कि वह पुत्र को मारने की योजना बनाने लगा था।
भगवान विष्णु के प्रति प्रह्लाद की अटूट आस्था उन्हें बार-बार मृत्यु-विनाश के चंगुल से बचाती है। अहंकार व बुराई पर सत्य व धर्म की जीत के प्रतीक रूप में आज भी होली एक त्योहार के रूप में मनायी जाती है। इसमें पूर्णिमा से पहले की रात को अग्नि-यज्ञ किया जाता है। एक अनुष्ठान जो बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है।
अनादि काल से अच्छे कर्म की बुरे कर्म पर जीत होती आई है। जो हमारे व समाज की व्यवस्था निर्धारित करती है। होलिका दहन के मायने हैं कि समाज में श्रेष्ठता की स्थापना होती है और नकारात्मकता व अहंकार का दहन होता है। साथ ही समाज में अमीर और गरीब, शक्तिशाली व दुर्बल आदि सभी के सहअस्तिव का संदेश भी मिलता है। आज, जब पूर्णिमा से एक दिन पहले प्रह्लाद महाराज के जीवित रहने का उत्सव मनाया जाता है तो पूर्णिमा के अगले दिन को एक नयी शुरुआत, एक उत्सव की सुबह, एक शक्तिशाली दिन के आगमन के रूप में मनाया जाता है, जो भगवान सूर्य की प्रथाओं के साथ चिह्नित है। हिमालय की प्राचीन संस्कृतियों और परंपराओं में, चंद्रमा को कभी अलग से नहीं देखा गया है। सही मायनों में चंद्रमा का उत्सव अपने आप में भगवान सूर्य का उत्सव ही है।
सही मायनों में यह दिन परिवार और दोस्तों के साथ खुशी, ताजगी, सद्भाव, रंग साझा करने और खुशी की मिठास बांटने के दिन के रूप में मनाया जाता है। इस दिन हर व्यक्ति अपने प्रियजनों के साथ रहने का प्रयास करता है। प्रेम, शांति और खुशी की ऊर्जा साझा करता है। इस जीवंत त्योहार की खुशी को अभिव्यक्त करने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले रंग जड़ी-बूटियों के प्राकृतिक मिश्रण से आते हैं, जिन्हें पारंपरिक रूप से कुमकुम के नाम से जाना जाता है। यह कुमकुम ही है, जिसे होली के त्योहार के विभिन्न उज्ज्वल रंगों को दर्शाने के लिए विभिन्न रूपों में उपयोग किया जाता है। पौराणिक रूप से, यह इस त्योहार के साथ भगवान श्रीकृष्ण का जुड़ाव है, जिसमें उनके प्रेम के संदेश को सभी तक फैलाने का सार है।
अपने प्रियजनों के साथ स्नेह का इजहार करने के भगवान कृष्ण की लीलाओं के प्रतीकों को रंगों के त्योहार के रूप में परिभाषित किया जाता है। सही मायनों में कृष्ण नाम होली के त्योहार का पर्याय है – एक ऐसा दिन जो हमें क्षमा करने और जीवन की कटुताएं भूलने का आह्वान करता है। एक ऐसा दिन जो हमें जीवन में दिखावे के बोझ से मुक्त होने का अनुभव करने का अवसर देता है। जिसमें असीम आनंद की अनुभूति होती है। वास्तव में, तब आप बस आप ही होते हैं। आपने अपना समय बिताने के लिए एक दिन चुना है। आप अपनी ऊर्जा, प्रेम और आनंद को दूसरों के बीच बांटते हैं। ये सब कुछ शुद्ध आनंद है। तब हम इन भावनाओं के साथ अपने जीवन के हर पल और हर दिन को बिताने के लिए खुद को तैयार कर सकते हैं। तभी हम कृत्रिमताओं से मुक्त सहजता-सरलता के जीवन का सुख पाने को उन्मुख होते हैं।
श्रीकृष्ण की नगरी रंगभरी
वसंत पंचमी पर मंदिरों में और होलिका दहन स्थलों पर होली का ढांडा गाड़े जाने के बाद से ही भगवान कृष्ण की नगरी मथुरा में 40 दिनों तक चलने वाले रंगोत्सव की धूम शुरू हो जाती है। बरसाना के लाडली जी मंदिर में ‘लड्डू होली’ खेले जाने के साथ ही होली का आनंद चरम पर पहुंच जाता है। फिर बरसाना और नंदगांव में खेली जाती है लट्ठमार होली। रंगभरनी एकादशी पर मथुरा में ठाकुर द्वारिकाधीश एवं वृंदावन के ठाकुर बांकेबिहारी मंदिर में श्रद्धालु अपने आराध्य के साथ होली खेलते हैं।
लड्डू होली परंपरा है कि बरसाना से एक सखी सुबह राधारानी की ओर से रंग और मिठाई लेकर नंदगांव के हुरियारों (होली खेलने वालों) को होली का आमंत्रण देने जाती है, तो सायंकाल वहां से एक पंडा कृष्ण के प्रतिनिधि के रूप में होली का न्योता देने बरसाना पहुंचता है। बरसाना के गोस्वामी उसका आदर-सत्कार करते हैं। आवभगत के लिए पंडा को लड्डू खिलाने की होड़ मच जाती है और एक प्रकार से लड्डुओं की बरसात होती है। इसे ‘लड्डू होली’ या ‘लड्डू लीला’ कहा जाता है।
छड़ीमार होली गोकुल में छड़ीमार होली भी खेली जाती है। गोपियां बालकृष्ण के साथ होली खेलने के लिए, छोटी-पतली छड़ियां लेकर निकलती हैं। मान्यता है कि यदि बड़ी लाठी से होली खेली जाएगी, तो कृष्ण को चोट पहुंच सकती है, इसलिए यहां छड़ियों से ही होली खेली जाती है। फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन होलिका दहन के अवसर पर कोसीकलां के निकट स्थित फालैन गांव में एक पंडा होली की धधकती हुई ज्वाला में से गुजरता है। अगले दिन ब्रजवासी होली खेलते हैं।