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पाकिस्तान में दक्षिण भारतीय राग की चांद-सूरज द्वारा लाजवाब पेशकश

संगीत की धरोहर

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राजेश गनोदवाले

इस बार का ‘याद ए सलामत’ दूसरे जिन भी कारणों से पाकिस्तान की शास्त्रीय संगीत बिरादरी के मध्य याद किया जाएगा, किया जाता रहेगा, लेकिन एक दुर्लभ राग और उसकी नायाब प्रस्तुति की वजह से इस पूरे दो दिवसीय समारोह ने जो रचनात्मक ऊंचाई हासिल की वह बेमिसाल उदाहरण बना। मन, इसे गाने वाले चांद और सूरज को सुनने के बाद ही बना कि कुछ लिखा जाए। मज़ा देखें कि अपने घर में बैठा हूं और पाकिस्तान के लाहौर में चल रहे दर्जेदार समारोह को दो दिनों से नियमित सुन रहा हूं। उसी की आखिरी शाम के नायाब फनकार थे चांद खां और सूरज खां नामक दोनों भाई।

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एक तरफ विभाजित पंजाब का पाकिस्तान के हिस्से में जुड़ने वाला समूचा इलाका अपनी शास्त्रीय संगीत की रुचियों को लेकर उसी घालमेल का शिकार है जिस तरह के मिलवा उदाहरण भारत में उभर आए हैं। अर्थात‍् चलताऊपन के प्रति बढ़ती आसक्ति! या, थोड़ी छूट लेते, ऐसा भी कह लें कि रागदारी को लेकर सिमटता उत्साह। हालांकि, भारत रागदारी संगीत में अपनी विविधताओं, घरानों और कलाकारों की अधिकता को लेकर आगे खड़ा है। फिलहाल वैसा संकट हमारे यहां नहीं है जैसा पाकिस्तान में है। फिर भी पाकिस्तान में ‘शाम चौरासी म्यूजिक सर्कल’ उम्मीद बनकर खड़ा है। इसका पता तब-तब लग जाता है जब इस मंच के ज़रिए वह कोई पहल करता सामने आता है। इसी क्रम में उसका बड़ा प्रयास होता है ‘याद-ए-सलामत’। उस्ताद सलामत अली- नज़ाकत अली वाले सलामत अली खां साब की बरसी के दौरान साल में एक दफा बड़े पैमाने पर रागदारी संगीत के गुणी कलाकारों को वह चुन-चुनकर सुनवाता है। इसी के तहत चांद खां और सूरज खां को सुनना समूचे समारोह की उपलब्धि बनीं।

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इसमें मतभेद की न्यूनतम गुंजाइश होगी कि इस समय समूचे पाकिस्तान में शास्त्रीय गायन का सिलसिलेवार और सलीके का पेशकश किसी ने बचा रखा है तो वो इन्हीं दोनों भाइयों ने। शुद्ध गाना। मिलावट से कोसों दूर। ख़ालिस गाना- ख़ालिस अंदाज़। जितनी तैयार गायिकी उतनी ही नज़ाकत और मिठास। यहां बड़ी रोचक बात है कि जिनकी यादों को समेटकर यह जलसा प्रतिवर्ष 9-10 सितंबर को मनता है उन्होंने ताउम्र जोड़ी से गाया। जोड़ी ही पहचान रही उनकी। लेकिन इन दोनों दिग्गज भाइयों के बेटों को कभी भी एक साथ गाते नहीं देखा गया।

उधर, उस्ताद हुसैन बख्श ने अपने दोनों बेटों को जोड़ी से गाने प्रेरित किया। (यह बात खुद खां साब ने इस लेखक को बताई थी) परिणामस्वरूप चांद और सूरज ने एक साथ राग रंजकता की तरफ़ खुद को मोड़ दिया। खुद उस्ताद हुसैन बख्श की एक रिकॉर्डिंग यूट्यूब में आज भी सुनी जा सकती है जिसमें वे एक अन्य गवैये के साथ किसी महफिल में जिस सहोदर भाव से रागदारी गाते दिखाई दे रहे हैं।

आज पाकिस्तान में जोड़ी के साथ खयाल गाने वालों में चांद-सूरज इस समय नई पीढ़ी में सबसे गुणी गवैये हैं। राग उन दोनों की साझा प्रस्तुति से कैसे निखरता चला जाता है, इस बात को भी जोड़ी से गाने वालों को सीखना चाहिए।

इस महफिल में उद्घोषक द्वय जो अन्य फनकारों के नाम पर कसीदे पढ़ते दिखाई दिए चांद-सूरज के बारे में उनके पास कहने को ठिकाने का एक भी लफ्ज नहीं था! और तो और दोनों भाइयों का नाम लेने की जगह उन्होंने सिर्फ चांद खां का नाम लिया। बहरहाल, जब नौजवान भाइयों की जोड़ी मंच पर आई तो सिर्फ वही दिखाई दिए। समय थोड़ा ही था। लेकिन जितना भी था, बताने के लिए काफी था कि उस्ताद हुसैन बख्श की तालीम का असर क्या होता है। ‘कसूर पटियाला घराना’ के इन नौजवान नुमाइंदों ने ‘राग लतांगी’ अवसर के लिए चुना था। यह कहते हुए कि इस राग को पाकिस्तान में परिचित कराने का श्रेय उन्हें ही जाता है। यदि नतीजे की बात की जाए तो दोनों भाई सम्पूर्ण गवैये हैं और प्रभाव कायम करने में सक्षम।

उनकी हर रचनात्मक-निकास पर दर्शक-श्रोताओं की ओर से मिलती हुई सही दाद ने उन्हें तरोताजा बनाए रखा। चांद खां की बहलावे में नायाब पकड़ है उतनी ही महीन तानकारी उनकी विशेषता है। जबकि छोटे भाई सूरज जटिल सरगमों को अर्थपूर्ण ढंग से खेलते हैं। तैयार तो वे भी उतने ही हैं।

एक तरफ पाकिस्तान में गलेबाजी का वर्चस्व दिखाई देता है ठीक इसी समय चांद-सूरज का गाना सुकून और मिजाजदारी का प्यारा उदाहरण है। आप यदि गौर से सुनें तो गाना समझ भी आता है और अपनी बढ़त के साथ-साथ आपको भी बहा ले जाता हुआ। याद-ए-सलामत में समय थोड़ा ही था। राग लतांगी की प्यास बनी हुई थी जैसे कुछ बीच राह में रोक दिया गया हो। अतः यूट्यूब खंगालने पर कराची में सजी ऑल पाकिस्तान म्यूजिक कॉन्फ्रेंस की एक रिकॉडिंग निकाली जिसमें ‘राग लतांगी’ विस्तार से खिला हुआ था। इन्हीं दोनों भाइयों का गाया हुआ। हारमोनियम, सारंगी की संगति में। मैनुवल तानपुरा भी अपनी मिठास के साथ गूंज रहा था, जो इस दो दिवसीय जलसे में कहीं दिखाई नहीं दिया।

इस राग को लेकर कुछ और पूछने के इरादे से मैंने चांद खां को (पाकिस्तान) फोन लगाया। मैं इस भ्रम में था कि उन्हें इस राग को लेकर उनके पिता अर्थात‍् हुसैन बख्श ने राह दिखाई है। जबकि ऐसा नहीं था!

बकौल चांद खां, ‘नए-नए रागों को लेकर उन्हें बड़ी दिलचस्पी है। हर वर्ष कॉन्फ्रेंस में उनकी कोशिश नया राग गाने की ही होती हैं। इसे हमारे अब्बा ने कभी नहीं गाया। असल में इसमें कुछ तीन रागों की शकल दिखाई देती है। एक दफा रागदारी रिसर्च के दौरान मैंने उस्ताद शराफ़त अली (उस्ताद सलामत अली के बड़े बेटे) से इस बारे में बातचीत की थी। वे रागों के आपसी समन्वय और स्वरों के कलात्मक प्रयोग से राग कैसे नया चेहरा लेकर सामने आता है इस दिशा में बड़े जानकार थे। बाद में उन्होंने ही मुझे बताया कि यह दक्षिण भारतीय ‘राग लतांगी’ है।

चित्र साभार : श्याम चौरासी म्यूजिक सर्कल

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