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बॉलीवुड में संगीतमय फिल्म का इंतजार

पुराने दौर की फिल्मों की सफलता में कर्णप्रिय संगीत का बड़ा योगदान रहा। बीते सालों में बॉलीवुड फिल्मों के हिट न होने की वजह बेसुरा संगीत भी है। पहले संगीतकार फिल्म के गाने की सुर रचना यानी मेलोडी में समय...
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पुराने दौर की फिल्मों की सफलता में कर्णप्रिय संगीत का बड़ा योगदान रहा। बीते सालों में बॉलीवुड फिल्मों के हिट न होने की वजह बेसुरा संगीत भी है। पहले संगीतकार फिल्म के गाने की सुर रचना यानी मेलोडी में समय लगाते थे आजकल सब फटाफट चाहिये। जबकि दर्शक संगीतमय फिल्म देखने के लिए बेचैन हैं।

बॉलीवुड के परफेक्शनिस्ट आमिर खान के मुताबिक, ‘मैंने अपने कैरियर के शुरुआती दौर में जिन कमर्शियल फिल्मों में काम किया, उन फिल्मों की सफलता में संगीत का बड़ा योगदान था। पर आज हमारी फिल्मों को मेलोडी का बिल्कुल सहारा नहीं मिल रहा है।’ आमिर को दुख है कि आज गुणी संगीतकार न के बराबर आ रहे हैं। यहां तक कि ‘90 के चर्चित संगीतकारों को भी लगभग हाशिए में ला दिया है। म्यूजिकल फिल्मों का अभाव साफ झलकता है।

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आमिर का क्षोभ

एक बातचीत के दौरान आमिर ने दोहराया कि विगत वर्षों में बॉलीवुड फिल्मों की पराजय की बड़ी वजह बेसुरा संगीत भी रहा है। आमिर कहते हैं, ‘ निस्संदेह आज फिल्म निर्माण में किसी भी पक्ष में क्रिएटिविटी कम ही देखने को मिल रही है। सभी जैसे एक जल्दबाजी में हैं। वरना एक दौर था, जब संगीतकार फिल्म के किसी गाने की सुर रचना में कई दिनों का वक्त ले लेते थे। जैसे कि मेरी ‘दिल’, ‘दिल है कि मानता नहीं’, ‘राजा हिंदुस्तानी’, ‘कयामत से कयामत तक’ जैसी फिल्मों की सफलता में कर्णप्रिय म्यूजिक का बड़ा हाथ था। आज हमारी ज़्यादातर फिल्में इसी बात को मिस कर रही हैं।’ यह बात अलग है कि आमिर इसके लिए संगीत से जुड़े लोगों को जिम्मेदार नहीं ठहराते।

सच का सामना

कर्णप्रिय संगीत के रसिक मान रहे हैं कि वे फिल्म के सबसे उल्लेखनीय पक्ष को लेकर संजीदा नहीं । यह भी कि वर्षों से दर्शक किसी संगीतमय फिल्म को देखने के लिए बेचैन हैं। बता दें कि राज कपूर, देव आनंद, शम्मी कपूर, राजेंद्र कुमार आदि पुराने दौर के कई नायक म्यूजिक सेटिंग में बैठना जरूरी मानते थे। इसलिए उनकी फैमिली ड्रामा वाली फिल्मों में संगीत की बड़ी अहमियत होती थी।

कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन

म्यूजिकल फिल्मों का वह दौर अद्भुत था, जब एक साधारण फिल्म के भी सारे गाने बेहद कर्णप्रिय होते थे। जाहिर है, ऐसे में पुराने दौर की फिल्में बार-बार याद आती हैं। उस दौर के संगीतकार और गीतकार सजदा करने लायक हैं। फिल्मों के हर दौर के साथ संगीत रचा-बसा रहा। यश चोपड़ा, आदित्य चोपड़ा, संजय लीला भंसाली जैसे कई संगीत रसिक फिल्मकारों ने एक्शन प्रधान फिल्मों में भी मेलोडी का दामन नहीं छोड़ा। लेकिन ‘90 के बाद म्यूजिकल फिल्मों की कमी साफ नज़र आने लगी।

कहां है वह समर्पण

कभी संगीतकार राहुल देव बर्मन यानी पंचम दा ने संगीतमय फिल्मों के बारे में कहा था , ‘जब तक आप इस तरह की फिल्मों के हर सिचुएशन में नहीं डूबते हैं, बेहतर सुर रचना की बात भूल जाइए।’ गुलजार भी कुछ इस तरह की बात कहते हैं। फिल्मकार महेश भट्ट ने संगीतकार नदीम-श्रवण के बारे में दिलचस्प बातें बताईं।

मेलोडी की समझ

‘दिल तो पागल है’, ‘दुश्मन’, ‘गदर’ जैसी कई फिल्मों में सुरीला संगीत बना चुके संगीतकार उत्तम सिंह बताते हैं, ‘मेलोडी कभी कृत्रिम नहीं होती है। इसके लिए तो जोड़-तोड़ की बजाय पूरी तरह सुर रचना में डूब जाना पड़ेगा। हर साज या वाद्य यंत्रों की समझ रखनी पड़ेगी। पर आज तो ज़्यादातर संगीतकारों को इसकी पूरी समझ नहीं है। मशीन ही सारी धुन निकाल

रही है।’

टी-सीरीज़ का पतन

टी-सीरीज़ के स्वामी गुलशन कुमार ने ‘आशिकी’, ‘साजन’, ‘सड़क’, ‘दीवाना’, ‘दिल है कि मानता नहीं’, ‘हम हैं राही प्यार के’ आदि ढेरों संगीतमय फिल्मों को खूब बढ़ावा दिया था। पर उनकी मृत्यु के बाद उनके बैनर से कोई म्यूजिकल फिल्म नहीं आई है।

कैसे बनेंगी म्यूजिकल फिल्में

रेडिमेड और झटपट धुनों ने ही हाल के वर्षों में फिल्म संगीत को सबसे ज़्यादा नुकसान पहुंचाया है। चर्चित संगीतकार अनु मलिक बताते हैं, ‘ज़्यादा फिल्मों का ऑफर पाने के लिए मैं हिट गाने नहीं बनाता हूं। फिर आज के श्रोताओं की रुचि इतनी तेजी से बदल रही है कि ब्रांडिंग की परिभाषा बदल चुकी है। मैं चाहता हूं कि मेरा हर निर्माता-निर्देशक धैर्य और समय लेकर मुझसे हर गाना बनवाए।

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