Tribune
PT
About the Dainik Tribune Code Of Ethics Advertise with us Classifieds Download App
search-icon-img
Advertisement

यादों की उड़ान में सिमटती एक विलुप्त होती प्रजाति

सोन चिरैया
  • fb
  • twitter
  • whatsapp
  • whatsapp
Advertisement

सोन चिरैया, एक दुर्लभ और संकटग्रस्त पक्षी है, जो भारत के घास के मैदानों में पाई जाती है। इसके लुप्त होने से पारिस्थितिक संतुलन प्रभावित होता है, इसलिए इसके संरक्षण के लिए व्यापक प्रयास आवश्यक हैं।

के.पी. सिंह

Advertisement

वह हमारे गीतों में आती है, किस्सों में आती है, अलंकारों में आती है और प्राचीन भारत के समृद्ध पारिस्थितिकीय इतिहास में आती है। मगर वर्तमान में वह धीरे-धीरे लुप्त होकर अब सिर्फ हमारी यादों और किताबों तक सिमट जायेगी। जी हां, हम सोन चिरैया या सोन चिरिया अथवा ग्रेट इंडियन बस्टर्ड की ही बात कर रहे हैं, जिसका वैज्ञानिक नाम अर्देवोटिस निग्रिसेप्स है और आईयूसीएन ने इसे अत्यंत संकटग्रस्त प्रजाति के खाने में डाल रखा है। इसे हिंदी में सोन चिरैया, मराठी में माळढोक और राजस्थानी में गोडावण कहते हैं। सोन चिरैया लगभग एक मीटर ऊंची होती है, इनमें नर का वजन आमतौर पर 11 से 15 किलो होता है, जबकि मादा 4 से 7 किलो की ही होती है। इसका जीवनकाल 15 से 20 साल का होता है। अगर ये जंगल में हों तब। इसके लुप्त होते जाने की पारिस्थितिकीय समस्या तो है ही, एक समस्या यह भी है कि यह साल में केवल एक अंडा देती है और उसे भी जमीन पर देती है, जिसे आमतौर पर कुत्तों द्वारा नष्ट कर दिया जाता है। इसलिए भारत की यह खास चिड़िया जो अनेक किस्सों और रहस्यों को अपने साथ समेटे है, धीरे-धीरे लुप्त होने की कगार पर है, जबकि इसके संरक्षण के लिए प्रयास हो रहे हैं।

महाराष्ट्र में तो ननाज माळढोक अभ्यारण्य ही है, जो सिर्फ सोन चिरैया के लिए ही समर्पित है, मगर हैरानी की बात यह है कि इस साल के शुरू में ननाज अभ्यारण्य में किये गये सर्वे में कोई भी सोन चिड़िया नहीं मिली। जबकि 1979 में स्थापित किया गया यह सोन चिरैया के लिए विशेष अभ्यारण्य महाराष्ट्र के सोलापुर जिले में स्थित है और इसका क्षेत्रफल 8496 वर्ग किलोमीटर है। यह सोलापुर के ननाज, मांडा, मोहल, कर्नाला और अहमदनगर जिला के कर्जत, श्रीगाेंदा और नवाड़ा इलाकों में फैला है। यह इकोरिज्म डेक्कन थाॅर्न स्क्रब फाॅरेस्ट में आता है, जहां उष्णकटिबंधीय जलवायु और थोड़ी बहुत घास, झाड़ी और विरले पेड़ पाए जाते हैं। वैसे साल 2018 में इनकी अनुमानित संख्या 150 थी। राजस्थान और महाराष्ट्र के अलावा सोन चिरैया गुजरात के कच्छ क्षेत्र में और कर्नाटक व आंध्र प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में भी पायी जाती है। इसके सिर के ऊपरी भाग में एक काली टोपी, ब्लैक कैप होती है। गर्दन स्पष्ट रूप से भूरे रंग की होती है और नर सोन चिरैया में प्रजनन काल के दौरान गले पर पाउच देखा जाता है। इसके बदौलत वह गहरे स्वर के बुलंद नाटीय आवाज निकालते हैं, जो आधा किलोमीटर तक सुनाई देती है।

सोन चिरैया सुबह और शाम सक्रिय रहती है। दिन के समय यह सुस्ती में होती है। मानसून के दौरान यह प्रजनन करती है, तब नर मादा को बुलाने के लिए अपने पाउज से आवाज निकालता है। सोन चिरैया अपना घोसला जमीन पर बनाती है और आमतौर एक या कभी-कभी दो अंडे देती है। एक महीने में इसके निष्क्रिय बच्चे उड़ान भरने के काबिल हो जाते हैं। नर सोन चिरैया बच्चों की देखभाल में जरा भी रुचि नहीं लेते। मादा ही बच्चों को पालती है। सोन चिरैया के इस तरह लुप्त होने के कगार पर पहंुचने का कारण इनकी कमजोर दृष्टि है, जिस कारण ये बिजली के तारों से फंसकर मारे जाते हैं। अकेले थार मरुस्थल के क्षेत्र में ही 18 से 20 सोन चिरैया हर साल मरी पायी जाती हैं, जो कि इनकी कुल आबादी का 15 से 18 फीसदी होती हैं। क्योंकि इनका आवास घास के मैदानों और खेती के बीच होता था, लेकिन अब घास के मैदान खत्म हो रहे हैं और खेती वाली जगहों पर सड़कें, बिजली के तार और रिन्यूएबल एनर्जी योजना के ढांचे खड़े हो जाने के कारण इनके आवास की समस्या पैदा हो गई है।

कुत्ते, लोमड़ियां और शिकारी इनके अंडों की तलाश में रहते हैं। जिस कारण इसके संरक्षण की कई तरह की कोशिशें की गई हैं। मसलन शेड्यूल फर्स्ट के तहत इनके शिकार पर पूर्णतः प्रतिबंध लगा दिया गया है और जैसलमेर के सुधासरी और रामदेवरा में इन्हें कैद करके प्रजनन करवाया जाता है। वर्ष 2025 तक ऐसे 20 बच्चे जन्म ले चुके थे, जिस कारण इनके संरक्षण की टिमटिमाती आस देखी जा रही है। सुप्रीम कोर्ट ने नेशनल बस्टर्ड रिकवरी प्लान 2013 को ध्यान में रखते हुए, इनके इलाकों में बिजली के तारों को जमीन के अंदर से ले जाने के आदेश दिए हैं। साथ ही इनके संरक्षण के लिए साल 2024-25 में 56 करोड़ रुपये भी मंजूर किये गये थे। जबकि इसके पहले यह राशि 33 करोड़ रुपये थी। राजस्थान और गुजरात के संरक्षित इलाकों मंे सोन चिरैया को बचाये जाने की उम्मीद की जाती है। रामदेवरा में पिछले साल 3 बच्चे जन्मे थे और अलग अलग संरक्षण केंद्रों में भी 3 से 4 बच्चे जन्में थे।

कुल मिलाकर सोन चिरैया भारत की एक प्रमुख फ्लैगशिप ग्रास लैंड प्रजाति की चिड़िया है और इसका बचाव न केवल पर्यावरण संतुलन बनाये रखने में मदद करता है बल्कि झाड़ीदार व घास के मैदानों का संरक्षण भी सुनिश्चित करता है। यही कारण है कि संरक्षण की चुनौतियों के बावजूद सरकार, एनजीओ, वैज्ञानिक और स्थानीय समुदाय इनके संरक्षण में लगे हुए हैं। साल 1979 में सोलापुर में जवाहरलाल नेहरू बस्टर्ड सेंचुरी की शुरुआत की गई थी, जिसके लिए 15240 पेड़ काटे गये थे तथा इसके अनुकूल वातावरण बनाया गया था। साल 2008-09 में ननाज अभ्यारण्य में 21 से 22 माळढोक पहुंची। लेकिन मई, 2025 में यहां कोई भी सोन चिरैया या माळढोक नहीं मिली, जो बहुत बड़ी चिंता का विषय था। इ.रि.सें.

Advertisement
×