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उत्तर पूर्वी भारत की संस्कृति, कला संग जनजातीय परंपराओं का जीवंत मंच

माजुली महोत्सव 21-23 नवंबर

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माजुली महोत्सव असम का प्रमुख सांस्कृतिक उत्सव है, जो पूरे नॉर्थ ईस्ट की कला, परंपरा और जनजातीय संस्कृति को प्रदर्शित करता है। वहीं यह उत्तर पूर्वी राज्यों की आर्थिकी के लिए भी लाभकारी है।

भारत की विविधता में अगर किसी क्षेत्र ने अपने लोकजीवन, परंपराओं और कलाओं को सबसे प्रमाणिक रूप से सहेजकर रखा है, तो वह उत्तर पूर्व भारत है। इस क्षेत्र का ही एक सांस्कृतिक रत्न है माजुली द्वीप, जो असम की ब्रह्मपुत्र नदी के बीच में बसा है। यह दुनिया का सबसे बड़ा नदी द्वीप है। यहां हर साल तीन दिवसीय माजुली महोत्सव मनाया जाता है, जिसमें न केवल स्थानीय परंपराओं का प्रदर्शन होता है बल्कि यह समूचे उत्तर पूर्व की सांस्कृतिक एकता, कला विविधता और आध्यात्मिक विरासत का भव्य उदाहरण प्रस्तुत करता है। यही कारण है कि इसे मात्र उत्सव नहीं बल्कि उत्तर पूर्व का सांस्कृतिक महोत्सव कहा जाता है।

इस माजुली महोत्सव की शुरुआत असम सरकार द्वारा साल 1997 में की गई। इसका आयोजन हर साल नवंबर महीने में किया जाता है, जब यहां का मौसम अत्यंत मनमोहक होता है। इस उत्सव का उद्देश्य स्थानीय कलाकारों, हस्तशिल्पकारों, लोक नृत्यों और आदिवासी समुदायों को एक साझा मंच प्रदान करना है, जहां वे अपनी कला और संस्कृति को असम ही नहीं बल्कि पूरे देश और दुनिया के सामने प्रस्तुत कर सकें। यह महोत्सव गरमुर क्षेत्र में आयोजित होता है, जहां नदी के किनारे अस्थायी मंच, हस्तकला का बाजार और लोककलाओं का प्रदर्शन होता है तथा सांस्कृतिक झांकियां लगाई जाती हैं।

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इसमें सिर्फ असम के सांस्कृतिक समुदायों की ही भागीदारी नहीं होती, बल्कि मणिपुर, मिजोरम, नगालैंड, अरुणाचल प्रदेश और त्रिपुरा के कलाकार भी इसमें शामिल होते हैं। इसलिए इसे सामान्य उत्सव की जगह नॉर्थ ईस्ट का एक सांस्कृतिक महोत्सव माना जाता है।

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माजुली उत्सव में सत्रिया नृत्य परंपरा, भोरताल नृत्य, बीहू, मणिपुर नृत्य के साथ-साथ मिजो जनजातियों के पारंपरिक नृत्य और नागा जनजातियों के युद्ध नृत्य शामिल होते हैं। एक तरह से यह नॉर्थ ईस्ट के नृत्यों का साझा महोत्सव है। इसी कलात्मकता और सांस्कृतिक विविधता के कारण इसे सांस्कृतिक महोत्सव का नाम दिया गया है।

यह उत्सव लोक शिल्पकारों के लिए भी बड़ा मंच होता है, जिसमें बांस, बेंत की वस्तुएं, मिट्टी के बर्तन, परंपरागत असमिया वस्त्र जैसे गमोशा, मेखला चादर और हस्तनिर्मित आभूषण प्रदर्शित किये और बेचे जाते हैं, जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था को गति मिलती है। नॉर्थ ईस्ट वैष्णव परंपरा के मठों का भी गढ़ है। यहां भगवान विष्णु और भगवान कृष्ण के अनेक मठ हैं और इन मठों में इनके ईष्ट देवों की पूजा-अर्चना विशेष नाट्य प्रदर्शनों के जरिए भी सम्पन्न होती है।

माजुली महोत्सव में अंकीय नाट, भक्ति संगीत और नाम कीर्तन जैसी विभिन्न परंपराओं का भी प्रदर्शन होता है, जो दर्शकों को संत श्रीमंत शंकरदेव महाराज के युग में ले जाती हैं। इसके साथ ही इस महोत्सव में जनजातीय संस्कृति की भूली-बिसरी गतिविधियां भी जीवंत हो उठती हैं। वास्तव में माजुली में मिसिंग, देओरी, सोनावाल और गार्गी जैसी कई जनजातियों की सदियों पुरानी सांस्कृतिक गतिविधियां प्रदर्शित होती हैं, जो आमतौर पर अन्य किसी महोत्सव में वह स्थान नहीं पातीं, जो माजुली महोत्सव में इन्हें मिलता है।

इस उत्सव में स्थानीय लोगों की नृत्य परंपराओं, पारंपरिक वेशभूषा और भोजन विशिष्टताओं का विशेष प्रस्तुतीकरण होता है, जो असम और पूरे उत्तर पूर्व की सांस्कृतिक विविधता का परिचय देती है। माजुली महोत्सव दरअसल सम्पूर्णता में उत्तर पूर्व की सांस्कृतिक परंपराओं का मजबूत सेतु है। इससे लोककलाओं को न सिर्फ संरक्षण बल्कि पुनर्जीवन भी प्राप्त हुआ है।

माजुली महोत्सव को देश-विदेश के लाखों पर्यटक न केवल देखने बल्कि इसके माध्यम से असम के पर्यटन उद्योग को समृद्ध करने आते हैं। इस दौरान यहां के हस्तशिल्प बाजार और होम स्टे आदि की अर्थव्यवस्था में भारी वृद्धि होती है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, इस उत्सव के कारण उत्तर पूर्व की अर्थव्यवस्था में 30 से 40 फीसदी तक का उछाल आता है।

माजुली का यह सांस्कृतिक महोत्सव पर्यावरणीय दृष्टि से भी अद्वितीय है, क्योंकि धार्मिक मठ और लोग बांस की झोपड़ियों और प्राकृतिक सजावट के साथ सामंजस्य पर बल देते हैं। यह उत्सव सतत जीवनशैली का सजीव उदाहरण है।

सबसे बड़ी बात यह है कि माजुली महोत्सव पर भले ही नॉर्थ ईस्ट का ठप्पा लगा हो, लेकिन बड़े स्तर पर यह भारत की समूची जनजातीय परंपरा का आईना है। इसलिए यूनेस्को ने माजुली को विश्व धरोहर स्थल की सूची में शामिल करने का प्रस्ताव दिया है। आने वाले सालों में इससे भारत की सांस्कृतिक गहराई और विविधता को विश्व पटल पर और भी सम्मान मिलेगा। इस तरह माजुली महोत्सव सिर्फ उत्तर पूर्व की जीवंत संस्कृति का ही नहीं, बल्कि समूचे भारत की जनजातीय संस्कृति का जीवन दर्पण है। इ.रि.सें.

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