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स्मार्ट सेंसरों की सरगोशियाें के बीच सुरक्षित जंगल

एआई कैमरा ट्रैप

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भारत में वन्यजीव संरक्षण पिछले दशक में तकनीकी उन्नति से बदल रहा है। एआई-सक्षम कैमरा-ट्रैप से प्रजातियों की पहचान, मानव-वन्यजीव संघर्ष की रोकथाम और त्वरित निगरानी संभव हो रही है। इससे शोधकर्ताओं का समय बचता है और असल संरक्षण प्रभावी बनता है।

भारत में वन्यजीव संरक्षण का परिदृश्य पिछले एक दशक से धीरे-धीरे बदल रहा है। पारंपरिक कैमरा-ट्रैपों पर अब ऑन-डिवाइस आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) जुड़ रही है। ये कैमरा ट्रैप मशीन लर्निंग मॉड्यूल से लैस होने के कारण इनसे ली गई तस्वीरों/वीडियो को हम तुरंत वर्गीकृत कर सकते हैं। जानवरों की प्रजाति, उनकी तथ्यात्मक पहचान और उन्हें लेकर होने वाली खतरनाक घटनाओं- मसलन उन तक शिकारियों की पहुंच या मानव घुसपैठ-की हम समय रहते न सिर्फ पहचान कर सकते हैं बल्कि इन समस्याओं से निपट भी सकते हैं। इन ऑन-डिवाइस एआई की बदौलत ज़रा-सी कोई गड़बड़ होने पर फॉरेस्ट कंट्रोल या कनफ्लिक्ट प्रबंधन टीमों को अलर्ट किया जा सकता है, और इस तरह वन्यजीवों का रियल टाइम संरक्षण एवं मानव-वन्यजीव संघर्ष का प्रबंधन भी आसानी से हो सकता है।

आज की प्राथमिकता तकनीकें और काम करने का तरीका तकनीकी वजह से काफी सरल हो चुका है। मसलन, सौर व बैटरी संचालित स्मार्ट कैमरे आजकल वन्यजीवों के रास्तों में जगह-जगह लगा दिए गए हैं। इन कैमरों में एंबेडेड एआई मॉड्यूल (या क्लाउड पाइपलाइन) तस्वीरों को फिल्टर करता है, झाड़ियों की हलचल या मानवीय क्रियाओं से पैदा हुई फ़ालतू तस्वीरों को हटाकर हम सिर्फ वाइल्डलाइफ इमेज पर ही फोकस कर सकते हैं। कुछ सिस्टम ट्रिगर होते ही मोबाइल या वायरलेस लिंक से लाइव अलर्ट भेजने लगते हैं ताकि वन्यजीवों की पेट्रोलिंग तेज़ हो सके। इससे पारंपरिक हाथ से छानने-गिनने की लागत बहुत घटती है और प्रतिक्रिया का समय घंटों की बजाय मिनटों में सिमट जाता है।

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एआई समर्थित कैमरा-ट्रैप से हम बड़ी संख्या में इमेज का तेज़ और विश्वसनीय वर्गीकरण कर सकते हैं, जिससे शोधकर्ताओं का बड़े पैमाने पर समय बचता है। व्यक्ति विशेष या प्रजाति विशेष की पहचान आसानी से हो जाती है तथा बायोमेट्रिक स्तर पर इस कारण इंडिविजुअल कैप्चर भी संभव हो जाता है। वन्यजीवों के बीच होने वाले क्लैश को लेकर रियल टाइम अलर्ट मिल जाता है। इससे मानव हिंसा या शिकार पकड़ने में मदद मिलती है। इसके साथ ही इस नई प्रणाली के ज़रिए डेटा शेयरिंग बहुत आसानी से राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय प्लेटफॉर्म में हो जाती है, जिससे वन्यजीवों की निगरानी व विश्लेषण में सुविधा होती है।

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हालांकि, चुनौतियां अब भी कम नहीं हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में या जहां कोई इंटरनेट सुविधा नहीं है, उन क्षेत्रों में रियल टाइम कनेक्टिविटी संभव नहीं हो पाती, क्योंकि सौर चार्जिंग जैसी सुविधाएं अभी भी आसान नहीं हैं। इसके अलावा स्थानीय भौगोलिक वजहें — जैसे कहीं ज़्यादा बारिश होना या कहीं ज़्यादा हवा चलना — ऐसी स्थितियां झूठे ट्रिगर बहुत पैदा करती हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात निजता और वन्यजीवों के सामाजिक प्रभाव को लेकर होती है। विभिन्न रिपोर्टें बताती हैं कि कभी-कभी कैमरा और ड्रोन का इस्तेमाल वन निगरानी के नाम पर ग्रामीण इलाकों की निगरानी या उत्पीड़न का साधन बन जाता है, जिससे स्थानीय समुदायों और वनकर्मियों के बीच अविश्वास की स्थिति पैदा हो जाती है। इसलिए तकनीक अपनाते समय पारदर्शिता, स्थानीय सहभागिता और गोपनीय नीति की आवश्यकता होती है।

बहरहाल, जिन जगहों पर विशेष रूप से यह आधुनिक तकनीक उपलब्ध है, उनमें उत्तराखंड के संरक्षित वन्यजीव पार्कों, विशेषकर जिम कॉर्बेट टाइगर रिजर्व और आसपास एआई सक्षम कैमरों की सुविधा उपलब्ध है। इसी तरह मध्य प्रदेश के बड़े टाइगर लैंडस्केप में एआई कैमरा अलर्ट प्रणालियां मानव-वन्यजीव संघर्ष घटाने में कारगर हुई हैं। महाराष्ट्र के संजय गांधी नेशनल पार्क में हालिया कैमरा ट्रैप सर्वे ने शहरी जंगल में मौजूद तेंदुओं की उपस्थिति को अच्छी तरह निगरानी के दायरे में लिया है। तमिलनाडु, असम के काजीरंगा तथा कुछ अन्य वन्यजीव पार्कों में भी कैमरा ट्रैप सर्वे आसान हुए हैं। लेकिन अभी यह सुविधा हर जगह उपलब्ध नहीं है।

इस तरह से अब एआई सक्षम कैमरा-ट्रैप वन्यजीवों की निगरानी को अब अनुसंधान के स्तर से आगे ले जाकर उनकी रक्षा तथा उन्हें संघर्ष से मुक्ति दिलाने की कोशिश तक पहुंच गया है। इ.रि.सें.

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