Explainer: क्या है ‘रेन बम’, क्यों बार-बार फट रहे हैं बादल
What is cloud burst: उत्तराखंड के चमोली जिले के थराली क्षेत्र में शनिवार तड़के एक और बादल फटने की घटना हुई, जिससे अचानक बाढ़ और भूस्खलन की स्थिति पैदा हो गई। कई इमारतें और वाहन मलबे में दब गए और कुछ लोगों के फंसे होने की आशंका जताई जा रही है। इस साल उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर सहित कई उत्तरी राज्यों में पहले ही कई बादल फटने की घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें जनहानि के साथ-साथ संपत्ति और बुनियादी ढांचे को भारी नुकसान हुआ है।
बादल फटना क्या है?
बादल फटना एक अत्यधिक भारी और स्थानीयकृत वर्षा होती है, जो लगभग 30 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में प्रति घंटे 100 मिमी की दर से होती है। यह ऐसा प्रतीत होता है जैसे बादल एक साथ अपना सारा नमी भंडार उड़ेल रहे हों। कभी-कभी इसे ‘रेन बम’ भी कहा जाता है।
बादल फटना आम तौर पर पहाड़ी क्षेत्रों में होता है, लेकिन यदि समान मौसम संबंधी परिस्थितियां विकसित हो जाएं तो यह अन्य क्षेत्रों में भी हो सकता है। मानसून के मौसम में बादल फटने की संभावना अन्य समयों की तुलना में कहीं अधिक होती है।
मौसम विशेषज्ञों के अनुसार, बादल फटने का कारण वायुमंडलीय परिस्थितियों, हवा की धाराओं, बादलों की गति और स्थलाकृति से जुड़ा होता है। जब निचले इलाकों से आने वाली गर्म, नम हवा पहाड़ी ढलानों के सहारे ऊपर उठती है (जिसे ओरोग्राफिक लिफ्टिंग कहा जाता है), तो ऊंचाई पर कम दबाव के कारण यह तेजी से फैलती और ठंडी होती है।
जब यह हवा अपने ओसांक तक पहुंचती है, तो उसमें मौजूद जलवाष्प बूंदों में संघनित हो जाता है और क्यूम्युलोनिंबस बादलों का निर्माण होता है। इन बादलों के भीतर तेज ऊपर उठने वाली धाराएं (अपड्राफ्ट्स) पानी की बूंदों और बर्फ के कणों को गिरने नहीं देतीं।
जब बादल अत्यधिक संतृप्त हो जाते हैं और अपड्राफ्ट्स कमजोर पड़ जाते हैं या बूंदें बहुत बड़ी हो जाती हैं, तो अचानक तेज बारिश होती है। यह बारिश लैंगमुइर प्रिसिपिटेशन की प्रक्रिया से और अधिक तेज हो जाती है, जिसमें बड़ी बूंदें छोटी बूंदों को टकराकर सोख लेती हैं और उनका आकार बढ़ जाता है। बादल फटने की अवधि कुछ मिनटों से लेकर कई घंटों तक हो सकती है।
क्या बादल फटने की भविष्यवाणी की जा सकती है?
मौसम वैज्ञानिक यह तो अच्छी सटीकता से बता सकते हैं कि किसी क्षेत्र में हल्की, मध्यम, भारी या बहुत भारी बारिश होगी, लेकिन बादल फटने जैसी घटनाओं का अनुमान लगाना मुश्किल है। इसका कारण है इन घटनाओं की स्थानीय प्रकृति, अल्प अवधि और अचानकपन।
हालांकि सैटेलाइट डाटा का व्यापक रूप से उपयोग वायुमंडलीय परिस्थितियों और बड़े पैमाने की मौसम प्रणालियों को समझने के लिए किया जाता है, लेकिन सैटेलाइट की वर्षा संबंधी जानकारी का रिज़ॉल्यूशन बादल फटने वाले क्षेत्र से बड़ा होता है, जिसके कारण यह घटनाएं अक्सर अनदेखी रह जाती हैं। मौसम पूर्वानुमान मॉडल भी इसी चुनौती से जूझते हैं।
विशेषज्ञ मानते हैं कि पहाड़ी क्षेत्रों में वर्षा का कुशल पूर्वानुमान करना कठिन है क्योंकि इसमें नमी, स्थलाकृति, बादल सूक्ष्मभौतिकी और वायुमंडल के विभिन्न स्तरों पर गर्मी-ठंडक की प्रक्रियाओं को समझना शामिल होता है।
इसके अलावा, डॉप्लर राडार और अर्ली वार्निंग सेंसर जैसी अधोसंरचना की कमी भी एक बड़ी चुनौती है। किसी क्षेत्र के मौसम का सटीक पूर्वानुमान लगाने के लिए आसपास के कई सौ किलोमीटर का इनपुट आवश्यक होता है।
नई तकनीकें जैसे कृत्रिम बुद्धिमत्ता और मशीन लर्निंग आधारित मौसम निगरानी प्रणालियां विकसित की जा रही हैं, ताकि अल्पकालिक चेतावनी और पूर्वानुमान की सटीकता को बेहतर बनाया जा सके। हालांकि किसी विशेष बादल फटने की घटना की भविष्यवाणी निकट भविष्य में संभव नहीं है, लेकिन चरम वर्षा की उन परिस्थितियों का पूर्वानुमान कुछ घंटे पहले लगाया जा सकता है, जो बादल फटने जैसी स्थिति पैदा कर सकती हैं।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, अक्टूबर 2010 में पुणे के पशान क्षेत्र में हुआ बादल फटना संभवतः दुनिया का पहला भविष्यवाणी किया गया बादल फटना था। उस दिन मौसम वैज्ञानिक किरण कुमार जोहरे ने दोपहर 2:30 बजे से अधिकारियों को कई संदेश भेजे थे, जिनमें बादल फटने की चेतावनी दी गई थी। शाम को 90 मिनट से कम समय में शहर में 181.3 मिमी बारिश दर्ज की गई। उन्होंने दावा किया था कि यह पूर्वानुमान खड़गपुर और गुवाहाटी में आए तूफानों के अवलोकन पर आधारित था।
हिमालय में संवेदनशीलता
हिमालय में बादल फटने जैसी चरम मौसम घटनाओं की बढ़ती आवृत्ति और तीव्रता को जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग से जोड़ा गया है। मानव गतिविधियों ने भी आपदा जोखिम को बढ़ाया है, जिसमें अस्थिर ढलानों पर निर्माण, बाढ़ग्रस्त नदी तटों पर बस्तियां, बिना भूगर्भीय आकलन के विकास और अव्यवस्थित बुनियादी ढांचा परियोजनाएं शामिल हैं।
सरकार ने माना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण बादल फटना, बाढ़, हीटवेव और चक्रवात जैसी चरम घटनाएं अधिक बार और गंभीर होती जा रही हैं। संसद में दिए एक जवाब में यह बात कही गई।
2025 के आर्थिक सर्वेक्षण में भी यह उल्लेख किया गया कि चरम मौसम घटनाओं ने खाद्य मुद्रास्फीति को बढ़ावा दिया है, खासकर बागवानी राज्यों में फसल को हुए नुकसान की वजह से।
पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के अनुसार, 1969 से अब तक हिमालयी क्षेत्र और पश्चिमी तट पर प्रति दशक लगभग पांच बादल फटने की घटनाओं में वृद्धि दर्ज की गई है। यह बदलाव वनों की कटाई और भूमि उपयोग में बदलाव जैसे सूक्ष्म जलवायु परिवर्तनों की वजह से हुआ है।
कुछ अध्ययनों से संकेत मिलता है कि भारतीय हिमालय की दक्षिणी ढलानें, विशेष रूप से उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और पूर्वोत्तर भारत के पहाड़ी क्षेत्र, बादल फटने के लिए अधिक संवेदनशील हैं। पश्चिमी घाट का पवनाभिमुखी हिस्सा (गोवा से गुजरात तक) और 1,000–2,500 मीटर ऊंचाई वाले इलाके भी अधिक असुरक्षित हो गए हैं।
संसद में दिए गए एक बयान में कहा गया कि मंत्रालय ने समय पर बादल फटने का पता लगाने और उनका सही पूर्वानुमान लगाने के लिए निगरानी तंत्र को मजबूत करने की दिशा में कई पहल की हैं।
वर्तमान में, भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) राडार और स्वचालित वर्षा मापी यंत्रों का उपयोग करके इन घटनाओं की निगरानी करता है। इन डाटा सेट्स को IMD के हाई-रेज़ोल्यूशन रैपिड रिफ्रेश मॉडलिंग सिस्टम और इलेक्ट्रिक वेदर रिसर्च एंड फोरकास्टिंग मॉडल में शामिल किया जाएगा, ताकि बादल फटने की घटनाओं को बेहतर तरीके से पकड़ा और पूर्वानुमानित किया जा सके।