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Explainer: एंटीबायोटिक थैरेपी... नवजात संक्रमण में सुरक्षित और कारगर विकल्प, जानें क्यों महत्वपूर्ण है यह शोध

Antibiotic therapy: पीजीआई चंडीगढ़ की टीम का शोध ‘लैंसेट क्लीनिकल मेडिसिन’ में प्रकाशित

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Antibiotic therapy: नवजात शिशुओं में गंभीर संक्रमणों के इलाज को लेकर अब चिकित्सा जगत में एक नई दिशा सामने आई है। पीजीआईएमईआर, चंडीगढ़ के प्रोफेसर डॉ. सौरभ दत्ता के नेतृत्व में भारतीय नवजात रोग विशेषज्ञों की एक टीम ने यह साबित किया है कि कम अवधि की एंटीबायोटिक थैरेपी भी उतनी ही प्रभावी है, जितनी लंबे समय तक दी जाने वाली दवाएं।

यह महत्वपूर्ण शोध ‘लैंसेट क्लीनिकल मेडिसिन’ नामक अंतरराष्ट्रीय मेडिकल जर्नल में प्रकाशित हुआ है। इसका निष्कर्ष न केवल नवजात शिशुओं के स्वास्थ्य के लिए राहत भरा है, बल्कि इससे एंटीबायोटिक दवाओं के अत्यधिक उपयोग, दुष्प्रभाव, अस्पताल में लंबे समय तक भर्ती रहने और इलाज की लागत को कम करने में भी मदद मिलेगी।

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डॉ. सौरभ दत्ता व डॉ. नंदकिशोर।

देश के प्रमुख विशेषज्ञों की टीम ने किया अध्ययन

इस अध्ययन का शीर्षक है – “शॉर्टर या बायोमार्कर-गाइडेड एंटीबायोटिक ड्यूरेशन फॉर कॉमन सीरियस नियोनेटल इंफेक्शन: ए कलेक्शन ऑफ नॉन-इंफीरियॉरिटी मेटा-एनालिसिस”। इस शोध टीम में देशभर के प्रतिष्ठित संस्थानों के विशेषज्ञ डॉ. नंदकिशोर काबरा (सूर्या हॉस्पिटल, मुंबई), डॉ. शिव सज्जन सैनी (पीजीआईएमईआर, चंडीगढ़), डॉ. राजेंद्र प्रसाद ऐन (कस्तूरबा मेडिकल कॉलेज, मणिपाल), डॉ. संदीप कदम (केईएम हॉस्पिटल, पुणे), डॉ. मोनिषा रमेशबाबू (चेत्तिनाड एकेडमी, चेन्नई), डॉ. सुप्रीत खुराना (सरकारी मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल, चंडीगढ़), डॉ. साई किरण (फर्नांडीज हॉस्पिटल, हैदराबाद) शामिल थे।  टीम ने कई शोध अध्ययनों के आँकड़ों को एक साथ विश्लेषित किया। इसमें गंभीर नवजात संक्रमणों में कम और अधिक अवधि की एंटीबायोटिक खुराक की तुलना की गई।

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क्या पाया गया अध्ययन में

शोध के निष्कर्ष बेहद महत्वपूर्ण हैं। रक्त संक्रमण (सेप्सिस) से पीड़ित नवजातों के लिए लगभग 7 दिन की एंटीबायोटिक थेरेपी पर्याप्त पाई गई, जबकि अब तक प्रचलित मानक 10 से 14 दिन का उपचार माना जाता था। ‘बायोमार्कर’ आधारित उपचार, यानी जब रक्त परीक्षण सामान्य स्तर पर आ जाए तो दवा बंद कर देना, कई मामलों में पूरी तरह सुरक्षित और प्रभावी साबित हुआ। संभावित संक्रमणों में 3–4 दिन और 5–7 दिन की दवाओं की तुलना में स्पष्ट निष्कर्ष नहीं मिले, जिससे इस दिशा में आगे और शोध की आवश्यकता बताई गई है। मूत्र संक्रमण, मेनिन्जाइटिस और फंगल संक्रमण जैसे मामलों में आंकड़े अभी पर्याप्त नहीं हैं। ये भविष्य के अनुसंधान के लिए प्राथमिक क्षेत्र माने गए हैं।

क्यों है यह शोध अहम

विशेषज्ञों का मानना है कि यह अध्ययन नवजात शिशुओं की देखभाल के तौर-तरीकों में बड़ा बदलाव ला सकता है। लंबे समय तक एंटीबायोटिक देने से जहां दुष्प्रभाव, प्रतिरोधक क्षमता में कमी और अस्पताल में संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है, वहीं यह शोध बताता है कि सही निगरानी में कम अवधि की दवा भी उतनी ही कारगर है।

डॉ. सौरभ दत्ता के अनुसार, “नवजात शिशुओं को दी जाने वाली हर एंटीबायोटिक का प्रभाव बहुत गहरा होता है। अगर हम प्रमाण-आधारित तरीके से दवा की अवधि घटा सकें, तो यह नवजात स्वास्थ्य देखभाल में क्रांतिकारी सुधार होगा। ‘लैंसेट क्लीनिकल मेडिसिन’ जैसे प्रतिष्ठित जर्नल में भारतीय विशेषज्ञों के इस शोध का प्रकाशित होना यह दर्शाता है कि भारत अब नवजात स्वास्थ्य अनुसंधान के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अग्रणी भूमिका निभा रहा है।

शोधकर्ताओं ने सुझाव दिया है कि भविष्य में मूत्र संक्रमण, मेनिन्जाइटिस और फंगल संक्रमणों पर केंद्रित और उच्च गुणवत्ता वाले अध्ययन किए जाने चाहिए। फंडिंग एजेंसियों और स्वास्थ्य संस्थानों को इस दिशा में प्राथमिकता से काम करने की जरूरत है, ताकि नवजात शिशुओं को सुरक्षित और सटीक उपचार मिल सके।

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