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देर से जागे

हिमालयी राज्यों की जवाबदेही तय हो

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हाल के दिनों में हिमाचल और उत्तराखंड में भारी बारिश, भूस्खलन, बादल फटने और बाढ़ की विभीषिका से जो जन-धन की हानि हुई, उसे केंद्र व राज्यों को एक सबक के रूप में लेना चाहिए। जाहिर है कि इन हिमालयी राज्यों में हिल स्टेशनों की वहन क्षमता को नजरअंदाज करके बिना मास्टर प्लान के जो निर्माण हुआ, वही इस आपदा की वजह बना। सत्ताधीशों व स्थानीय प्रशासन ने इस अंधाधुंध निर्माण की अनदेखी की है, जिससे इन हिल स्टेशनों के अस्तित्व पर ही संकट के बादल मंडराने लगे। इस तबाही के बाद ही देश की शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार से कहा था कि वह हिमालयी राज्यों में वहन क्षमता के संबंध में निर्देश पारित करने के लिये आगे का रास्ता सुझाए। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने हाल के दिनों में अतिवृष्टि से शिमला और जोशीमठ में भूस्खलन की घटनाओं के मद्देनजर हिमालयी क्षेत्रों में वहन क्षमता और मास्टर प्लान का आकलन करने के लिये एक विशेषज्ञ पैनल गठित करने का संकेत दिया था। इस विषय की गंभीरता को देखते हुए मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ ने कहा था कि उसका विचार तीन विशेषज्ञ संस्थानों को इस मकसद के लिये एक-एक विशेषज्ञ को नामित करने के लिये कहने का है। कोर्ट के इसी मौखिक निर्देश के जवाब में केंद्र सरकार ने हालिया हलफनामा दाखिल किया है। इस हलफनामेे के मुताबिक, केंद्र चाहता है कि हिमालय क्षेत्र की वहन क्षमता के आकलन के लिये समयबद्ध ढंग से कार्ययोजना को मूर्त रूप दिया जाये। दरअसल, केंद्र सरकार से सुप्रीम कोर्ट ने सभी 13 हिमालयी राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों को इस संबंध में निर्देश देने का आग्रह किया। केंद्र सरकार ने अपने हलफनामे में कहा कि इन राज्यों को प्रतिष्ठित जीबी पंत राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण संस्थान द्वारा तैयार दिशा-निर्देशों के अनुसार वहन क्षमता के मूल्यांकन के लिये उठाये गये कदमों की रिपोर्ट और एक्शन प्लान समयबद्ध तरीके से लागू करने का निर्देश दिया जाये।

दरअसल, यहां वहन क्षमता से अभिप्राय है इन हिमालयी शहरों की क्षमता के अनुसार जनसंख्या के आकार का निर्धारण करना, जो कि क्षेत्र के पारिस्थितिकीय तंत्र को नुकसान पहुंचाये बिना अस्तित्व में रह सकती है। दरअसल, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामे में इस बात का उल्लेख है कि हरेक हिल स्टेशन में स्थानीय अधिकारियों की सहायता से उन तमाम तथ्यात्मक पहलुओं की पहचान की जाए और उससे जुड़े सभी आंकड़े जुटाए जाएं। मंत्रालय का कहना था कि इन हिमालयी राज्यों द्वारा तैयार की गयी वहन क्षमता अध्ययन की रिपोर्ट का मूल्यांकन जीबी पंत राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण संस्थान के निदेशक की अध्यक्षता वाली एक तकनीकी समिति द्वारा किया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि संस्थान विगत में मनाली, मैक्लोडगंज व मसूरी के लिये किये गए एक विशिष्ट वहन क्षमता अध्ययन में भागीदार रहा है। इस बाबत मंत्रालय का सुझाव रहा है कि इस अभियान में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान, राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान, भारतीय रिमोट सेंसिंग संस्थान, राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान, वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी,भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद, भारतीय वन्यजीव संस्थान तथा स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर के निदेशकों या विशेषज्ञों को समिति में शामिल किया जा सकता है। निस्संदेह, इस अध्ययन को प्रमाणिक व व्यावहारिक बनाने के लिये राज्यों के आपदा प्रबंधन प्राधिकरण, भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग के प्रतिनिधि, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड व केंद्रीय भूजल बोर्ड के नामित व्यक्तियों की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। तंत्र की काहिली का आलम देखिये कि जीबी पंत संस्थान ने इस बाबत दिशा-निर्देश तैयार करके तीस जनवरी 2020 को सभी तेरह हिमालयी राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों को भेज दिये थे, लेकिन इस बाबत कोई कार्रवाई नहीं हुई। विडंबना ही है कि 19 मई, 2023 में मानसून से पहले भी इन राज्यों को स्मरण पत्र भेजा गया, लेकिन फिर भी कोई कार्रवाई नहीं हुई। यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि इन विशेषज्ञ संस्थानों की सिफारिशों को सहज-सरल रूप दिया जाए ताकि उन पर व्यवहार में सुगमता से अमल किया जा सके। लोगों की आर्थिक क्षमताओं व सीमाओं को लेकर मानवीय व संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाया जा सके।

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