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सेंधमारी से लाचारी

डिजिटल लेन-देन को मिले सुरक्षा कवच

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साइबर सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर नजर रखने के लिये बनी एक संसदीय समिति की रिपोर्ट के निष्कर्ष परेशान करने वाले हैं कि देश में पिछले तीन सालों में साइबर अपराध तीन गुना बढ़े हैं। साइबर अपराधों का शिकार बने लोगों की संख्या लाखों में जा पहुंची है। यह रिपोर्ट चौंकाती है कि देश में बीस लाख लोग साइबर ठगी का शिकार हुए। इन लोगों से करीब ढाई हजार करोड़ रुपया ठगा गया है। इसे ठगी कहने की बजाय लूट ही कहा जाना चाहिए। लोगों की खून-पसीने की कमाई का यूं सेकेंडों में पार हो जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। हमारी डिजिटल सुरक्षा की परत कितनी लचर है कि ठगे गये 100 रुपये में से सिर्फ आठ रुपये की ही वापसी हुई। उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि अस्सी फीसदी से अधिक साइबर अपराध सिर्फ दस शहरों में हुए हैं। इसकी एक वजह यह भी कि गांवों व दूरदराज के इलाकों में साक्षरता दर में कमी और असुरक्षित डिजिटल प्रणाली के प्रति झिझक के चलते डिजिटली लेन-देन से परहेज किया जाता है। दरअसल, हमारे नीति-नियंताओं ने डिजिटल लेनदेन अपनाने की जरूरत तो बतायी है, लेकिन पर्याप्त सुरक्षा उपलब्ध कराने को प्राथमिकता नहीं दी। कहीं न कहीं बैंकिंग व्यवस्था की कमजोर कड़ियों का भी साइबर ठग शातिर ढंग से दुरुपयोग करते हैं। कई तरह के लूप-हॉल्स के जरिये साइबर अपराधी लोगों के खातों तक पहुंच जाते हैं। दरअसल, दुनिया के कई देशों में भी साइबर हमलावरों को सरकारी प्रश्रय दिया जाता है। हालांकि, उनके लक्ष्य कूटनीतिक हमले होते हैं, लेकिन उनकी आर्थिक अपराधियों से सांठगांठ से इनकार नहीं किया जा सकता है। कई अफ्रीकी देशों के साइबर अपराधी भारत आकर साइबर ठगी के धंधे में लिप्त पाये गये हैं। अनेक साइबर ठगी की घटनाओं में लूट की राशि का विदेशी खातों में हस्तांतरण बताता है कि देश में होने वाले साइबर अपराधों के तार विदेशों से भी जुड़े हैं। जिन तक पहुंच बना पाना पुलिस व साइबर अपराध नियंत्रण विभाग के लिये एक टेढ़ी खीर जैसा होता है।

दरअसल, साइबर सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर रिपोर्ट देने वाली संसदीय समिति के कई तथ्य आंख खोलने वाले हैं। रिपोर्ट बताती है कि साइबर अपराध के मामलों में दो प्रतिशत से कम पीड़ित लोगों ने प्राथमिकी दर्ज करवाई। प्राथमिकी दर्ज होने की एक वजह जहां जागरूकता का अभाव है,वहीं लोगों में आम धारणा है कि गया पैसा मुश्किल से ही लौटता है, फिर पुलिस-कचहरी के चक्कर काटकर और मुसीबत क्यों मोल लें। आरोप लगते हैं कि व्यवस्था में व्याप्त लापरवाही व भ्रष्टाचार भी साइबर अपराधों को बढ़ावा देता है। खासकर लूट की राशि को जांच एजेंसियों की पकड़ से दूर रखने के लिये फर्जी बैंक खातों का दुरुपयोग भी इसका एक उदाहरण है। वहीं शातिर अपराधी व्यवस्थागत अनियमितताओं के चलते फर्जी आधार कार्ड व बैंक खाते हासिल करने में सफल हो जाते हैं। कई मामलों में साइबर ठगों ने जनधन खातों का उपयोग लूट की राशि को ठिकाने लगाने के लिये किया। कई रेहड़ी-फड़ी वालों व मजदूरों को प्रलोभन देकर खाते खुलवाये गये कि उनके खातों में सरकारी सुविधाओं का पैसा आयेगा। उनके खातों व एटीएम कार्डों का दुरुपयोग ये अपराधी करते रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि निजी बैंक इन खातों पर नजर क्यों नहीं रखते? उन्हें यह असामान्य क्यों नहीं लगता कि गरीब लोगों के खातों में ये लाखों रुपये कहां से और क्यों आ रहे हैं? क्यों दूसरे खाता संचालक व्यक्ति की संदिग्ध गतिविधियों पर नजर नहीं रखी जाती? पैसे का असामान्य प्रवाह यदि बैंक के अधिकारियों व कर्मचारियों की नजर में पहले आ जाये तो साइबर अपराधियों को लूट का पैसा हथियाने से रोका जा सकता है। कोशिश हो कि बैंक खातों के आधार कार्ड से लिंक होने का गलत लाभ साइबर अपराधी न उठा सकें। निस्संदेह, देश में साइबर ठगी की इन घटनाओं से डिजिटल इंडिया के लक्ष्यों को हासिल करने में बाधा उत्पन्न होगी। यदि सरकार साइबर सुरक्षा की गारंटी देगी और अपराधियों पर सख्ती से शिकंजा कसेगी तो लोगों का डिजिटल व्यवस्था पर विश्वास बढ़ेगा। इस दिशा में सख्त कानून की जरूरत भी महसूस की जा रही है।

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