दशकों मान्यता रही है कि समाज का मिडल ऐज ग्रुप दु:खी व तनाव में और युवा व बुजुर्ग प्रसन्न रहते हैं। लेकिन हालिया प्रकाशित एक अध्ययन ने बताया कि दु:ख की शुरुआत अब युवा अवस्था में हो रही है। अमेरिका, ब्रिटेन, एशिया, अफ्रीका समेत मध्यपूर्व के 44 देशों में यह ट्रेंड देखा गया है। जिसमें भविष्य की अनिश्चितता व कार्य परिस्थितियों का दबाव तो है मगर बड़ा कारक सोशल मीडिया बताया जा रहा है। दरअसल, लगातार सोशल मीडिया से जुड़े रहने और यथार्थ से दूर रहने के कारण युवा जीवन की वास्तविक स्थितियों का मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं। आभासी मीडिया उन्हें बड़े-बड़े सपने तो दिखाता है, लेकिन जीवन की कठोर सच्चाई से अवगत नहीं कराता है। यही वजह है कि जहां पहले मिड ऐज ग्रुप यानी 40 से 50 आयु वर्ग दुखी माना जाता था, उसके स्थान पर दु:ख की शुरुआत अब युवा उम्र से ही होने लगी है। हालिया, ग्लोबल माइंड प्रोजेक्ट के आंकड़ों में, अफ्रीका, यूरोप, लैटिन अमेरिका, एशिया, अमेरिका व मिडल ईस्ट के 44 देशों का अध्ययन बताता है कि बुजुर्गों की तुलना में युवाओं का मानसिक स्वास्थ्य ज्यादा खराब है। वेब आधारित इस सर्वे में पर्याप्त डेटा जुटाया गया था। जो बताता है कि यह ट्रेंड केवल विकसित देशों में ही नहीं है, बल्कि वैश्विक स्तर पर है। आंकड़े बताते हैं कि हर नई पीढ़ी अब पहली के मुकाबले ज्यादा तनाव में है। वहीं दूसरी तरफ अमेरिका व ब्रिटेन में किए गए एक अन्य सर्वे में कम पढ़े-लिखे युवा कर्मियों में अवसाद ज्यादा पाया गया है। पहले मान्यता रही है कि नौकरीपेशा लोगों में नौकरी मिलने के बाद तनाव कम होता है,लेकिन आज हकीकत ठीक इसके विपरीत है। ब्रिटेन के एक सर्वे में कहा गया है कि साल 2016 के बाद चालीस से कम उम्र के युवाओं में चिंता व अवसाद पहले के मुकाबले ज्यादा हो गया है। वैसे यह भी हकीकत है कि जिन देशों में रोजगार की स्थिति बेहतर है,वहां मानसिक सेहत में सुधार हुआ है।
दरअसल, तमाम अध्ययन बता रहे हैं कि सोशल मीडिया में लगातार सक्रियता युवाओं को वास्तविक सामाजिक जीवन से दूर कर रही है। वे कृत्रिम जीवन में जी रहे हैं। जब हम समाज व मित्रों के बीच सक्रिय रहते हैं तो बातचीत से तनाव मुक्त रह सकते हैं। देर रात तक सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने से युवाओं का नींद का चक्र बुरी तरह से प्रभावित हो रहा है। आभासी मित्रता के बजाय आमने-सामने की बातचीत सेहत के लिये ज्यादा लाभकारी होती है। यह जीवन की हकीकत है कि हमारे जीवन में योगदान देने वालों के प्रति यदि हम कृतज्ञता का भाव रखते हैं तो हमारा जीवन- व्यवहार सहज हो जाता है। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि हम जिन चीजों के प्रति कृतज्ञ हैं, उनके बारे में लिखने से हमारा नजरिया बदलता है। हमारा मानसिक स्वास्थ्य इस बात पर निर्भर करता है कि हमारी दिनचर्या कितनी अनुशासित व संतुलित है। रात को जल्दी सो जाने और सूर्योदय के साथ उठने से हम दिनभर प्रफुल्लित रह सकते हैं। विडंबना यह भी कि सोशल मीडिया पर आधुनिक जीवन की जो चमक-दमक दिखायी जाती है,युवा उसको पाने की आकांक्षा करने लगते हैं। लेकिन जीवन का यथार्थ कठोर है। निस्संदेह, वैज्ञानिक उन्नति व तकनीकी विकास से पूरी दुनिया में रोजगार के अवसरों का संकुचन हुआ है। श्रम आधारित उद्योगों के बजाय कृत्रिम बुद्धिमत्ता वाले उद्योगों के बढ़ने से यह स्थिति पैदा हुई है। साथ ही नौकरियों में अस्थिरता व असुरक्षा के चलते भविष्य को लेकर जो अनिश्चितता पैदा होती है, उससे युवाओं में तनाव की वृद्धि होती है। भौतिकवादी नजरिये के चलते आज के युवा जिस जीवनशैली की आकांक्षा रखते हैं, वह पूरी न होने पर भी वे डिप्रेशन के शिकार बन जाते हैं। युवाओं को जीवन के कठोर यथार्थ से जूझने का संबल देना वक्त की जरूरत है। असीमित आकांक्षाओं व जीवन के यथार्थ में साम्य स्थापित करना तमाम समस्याओं का समाधान देता है। सोशल मीडिया से सुरक्षित दूरी इसमें मददगार साबित हो सकती है।