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पर्व का मर्म समझें

आज़ादी की रक्षा हर भारतीय का फर्ज

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आज हम देश का 77वां स्वतंत्रता दिवस मना रहे हैं। हम उन शहीदों व स्वतंत्रता सेनानियों के ऋणी हैं जिनके सर्वस्व बलिदान व त्याग से हम आजादी की खुली हवा में विकास व तरक्की की नई इबारत लिख रहे हैं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में हमारी उपलब्धियां उल्लेखनीय हैं। समय के साथ आई कई विसंगतियों की कसक जरूर है,लेकिन उपलब्धियों की सूची भी लंबी है। ‘द ट्रिब्यून’ परिवार के लिये यह दोहरी खुशी का मौका है कि दैनिक ट्रिब्यून व पंजाबी ट्रिब्यून अपनी स्थापना की 46वीं वर्षगांठ मना रहे हैं। स्थापना की अर्द्धशती की ओर उन्मुख इन समाचार पत्रों ने पत्रकारिता के उन उच्च मानकों के अनुपालन में ‘द ट्रिब्यून’ के पदचिन्हों का अनुसरण किया है, जो इसके संस्थापक सरदार दयाल सिंह मजीठिया जी के लक्ष्य थे। निस्संदेह, किसी भी लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहे जाने वाले मीडिया की बड़ी भूमिका होती है। निष्पक्ष व निर्भीक पत्रकारिता ही सत्ता को निरंकुश होने से रोकती है और उसे जनसरोकारों व लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति दायित्वबोध कराती है। लोकतंत्र में जितनी महत्वपूर्ण भूमिका मीडिया की होती है, उतनी ही जरूरत मजबूत विपक्ष की भी होती है। जो लोकतंत्र में एक सचेतक की तरह होता है। सत्तापक्ष का भी यह दायित्व है कि वह विपक्ष की जायज बात का सम्मान करे और मिल-जुलकर लोकतांत्रिक दायित्वों का निर्वहन करे। यही हमारे मार्गदर्शक संविधान का भी संदेश है। हाल के दिनों में भारी बहुमत से सत्ता में आये राजग व विपक्ष के बीच विभिन्न मुद्दों पर तल्खी को लोकतांत्रिक परंपरा के रूप में देखा जाना चाहिए। लेकिन इसके बावजूद सत्ता पक्ष का नैतिक दायित्व है कि विपक्ष भले ही संख्याबल में कम हो, लेकिन उसकी जायज मांग को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। पक्ष-विपक्ष के बीच सामंजस्य से देश चलाने की परिपाटी किसी भी लोकतंत्र के लिये अपरिहार्य होती है। जिसके जरिये ही शासन की लोककल्याणकारी अवधारणा को मूर्त रूप दिया जा सकता है।

निस्संदेह, आजादी के साढ़े सात दशकों में देश की तमाम उपलब्धियां गर्व करने लायक हैं। लेकिन उसके बावजूद धार्मिक व जातीय हितों के टकराव के चलते होने वाली हिंसा विचलित करती हैं। हाल के दिनों में मणिपुर की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं ने देशवासियों को व्यथित किया। 21वीं सदी के भारत में ये घटनाएं दुर्भाग्यपूर्ण ही कही जाएंगी। इस मुद्दे पर जमकर राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप भी लगे। बेहतर होता पक्ष व विपक्ष मिलकर हिंसा पीड़ितों के जख्मों पर मरहम लगाते। सत्तापक्ष और विपक्षी दलों का साझा प्रतिनिधि मंडल मणिपुर जाकर वस्तुस्थिति का जायजा लेता और हालात सामान्य बनाने का प्रयास करता। इस संवेदनशील घटनाक्रम को प्रतिष्ठा व राजनीति का मुद्दा बनाने के बजाय यदि समस्या के समाधान पर मंथन होता तो स्थिति इतनी जटिल न होती। वहीं नूंह व गुरुग्राम की घटनाएं भी परेशान करने वाली रहीं। देश की आजादी के 77वें वर्ष में भी यदि विभाजन की त्रासदी जैसी सांप्रदायिक अलगाव की भावना उभरती है तो यह हमारी नाकामी ही कही जायेगी। राजनेताओं को नहीं भूलना चाहिए कि संविधान में हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की आकांक्षा अभिव्यक्त की थी। इस देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण व अलगाव की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। किसी भी तरह की संकीर्णता हमारी वसुधैव कुटुंबकम‍् की अवधारणा को नुकसान पहुंचाती है। कोई भी तंग नजरिया देश की गंगा-जमुनी संस्कृति पर आंच लाता है। स्वतंत्र भारत में भी यदि अंग्रेजों की तरह विभाजनकारी हथकंडे अपनाये जाते रहेंगे तो यह देश के शहीदों का अपमान होगा। यह हमारे संविधान की मूल भावना के भी विपरीत है। एक आत्मघाती कदम ही कहा जायेगा किसी भी तरह की अलगाववादी राजनीति को। वक्त की जरूरत है कि मीडिया नीर-क्षीर विवेक का परिचय देकर सचेतक की भूमिका निभाए। विपक्ष सजगता के साथ मुद्दों को उठाये। सत्तापक्ष विपक्ष की आवाज को सम्मान दे। शहीदों के अथक त्याग-बलिदान से हासिल आजादी को अक्षुण्ण बनाये रखना हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है। एक नागरिक के रूप में हमें भी ध्यान रखना होगा कि मौलिक अधिकारों के साथ ही हमारे कुछ कर्तव्यों का उल्लेख हमारे संविधान में किया गया है। देश की आजादी की रक्षा के लिये साझे प्रयासों की जरूरत है।

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