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यूएन में ट्रंप की मसखरी

गंभीर पहल से ही होते हैं युद्ध समाप्त

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संयुक्त राष्ट्र महासभा में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रंप का जैसा अगंभीर व असामान्य व्यवहार नजर आया, उससे कहीं से नहीं लगा कि वे विश्व की एक महाशक्ति का नेतृत्व कर रहे हैं। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि दुनिया में युद्धों को समाप्त करने के लिये सिर्फ बयानबाजी नहीं, ठोस रणनीति व गंभीर प्रयासों की जरूरत होती है। संयुक्त राष्ट्र में डोनॉल्ड खुद को लगातार जबरदस्ती एक शांति के मसीहा के तौर पर पेश करते रहे हैं। उन्होंने दावा दोहराया कि उनके नेतृत्व में दुनिया में सात युद्धों को समाप्त किया गया। दावा कि उन्होंने संघर्ष को नियंत्रित करने में निर्णायक भूमिका का निर्वहन किया। जबकि इसके विपरीत उनके भाषण का सार कुछ और ही दर्शाता है। साफ नजर आया कि एक ऐसा नेता जो स्थायी शांति सुनिश्चित करने के लिये आवश्यक सहयोग के स्तंभों को ही कमजोर कर रहा है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि पूंजीपति सरोकारों के अनुरूप उन्होंने ‘जलवायु परिवर्तन को अब तक का सबसे बड़ा धोखा’ बताकर खारिज कर दिया। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि जलवायु परिवर्तन के घातक प्रभावों से पूरी दुनिया में जन-धन की व्यापक क्षति हो रही है। इसके चलते सूखे, बाढ़ व विनाशकारी तूफानों से पूरी दुनिया की खाद्य सुरक्षा खतरे में नजर आ रही है। जो मानव जीवन को लगातार संघर्षमय बना रहे हैं। ट्रंप का शांति बनाये रखने के दावे करना और जलवायु परिवर्तन की वास्तविकता को नकारना, उनके विरोधाभासी व्यवहार को ही दर्शाता है। साथ ही उनकी बयानबाजी के खोखलेपन को ही उजागर करता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही कि उन्होंने विश्वव्यापी प्रवासन को ‘राष्ट्रों को नष्ट करने वाली’ शक्ति बताकर निंदा की, जो मानवता के खिलाफ दुर्भावना ही कही जाएगी। बेहतर भविष्य और सुखमय जीवन की तलाश में प्रवासन सदियों से मानव इतिहास का हिस्सा रहा है। जिसने विभिन्न समाजों को नया आकार दिया है और प्रगति को नई गति दी है।

निस्संदेह, प्रवासियों को खतरे के रूप में पेश करना जेनोफोबिया को बढ़ावा देना है। जो वैश्विक समुदायों को विभाजित करने की कुत्सित कोशिश है। ऐसे संघर्ष को रोकने के बजाय इस तरह की गैरजिम्मेदार बयानबाजी सामाजिक आक्रोश और विभाजन को ही जन्म देगी। कालांतर ये विकसित राष्ट्रों में आए प्रवासियों के विरुद्ध नस्लीय हिंसा को बढ़ावा देगा। निस्संदेह, प्रवासियों के लिये अपने दरवाजे बंद करने से शांति सुनिश्चित नहीं होती। आज जब आधुनिक तकनीक व संचार क्रांति के चलते दुनिया के एक गांव में तब्दील होने की बात कही जाती है तो यह सोच नितांत अतार्किक व मानवीय मूल्यों की विरोधी ही है। वहीं दूसरी ओर संयुक्त राष्ट्र पर ट्रंप का हमला करना और इसे ‘अप्रभावी और पाखंडी करार देना’- उनके कथित शांतिदूत होने के दावे को कमजोर करता है। माना कि संयुक्त राष्ट्र संघ की अपनी सीमाएं हैं, लेकिन आज के संघर्षरत विश्व में यह एकमात्र वैश्विक निकाय है, जो संवाद, मानवीय राहत और शांति स्थापना के लिये कारगर विकल्प प्रस्तुत करता है। खुद को शांति के संरक्षक के रूप में प्रस्तुत करते हुए, इस पर अनुचित तरीके से हमला करना, उन्हीं संस्थाओं को कमजोर करना है, जो दुनिया को युद्ध के संकट से बचाने का काम करती हैं। बहरहाल, घटनाक्रम का भारत के लिये स्पष्ट सबक है कि हमें वाशिंगटन के साथ मजबूत संबंध बनाये रखते हुए, अलगाववादी-संशयवादी राजनीति में नहीं फंसना चाहिए। इसके बजाय, भारत को बहुपक्षवाद, जलवायु नेतृत्व और समावेशी वैश्विक शासन पर दुगनी गति से जोर देना चाहिए। शांति को केवल सैन्य संयम तक सीमित नहीं किया जा सकता। इसके लिये साझी मानवीय चुनौतियों से मुकाबले के लिये सहयोग की आवश्यकता है। ट्रंप के संयुक्त राष्ट्र महासभा में दिए गए भाषण ने एक अन्य विरोधाभास को भी उजागर किया, कि एक तरफ तो यह नेता युद्धों को समाप्त करने के नाम पर वाहवाही लूटने का श्रेय लेने हेतु तमाम तरह के प्रपंच करता है, लेकिन वहीं दूसरी ओर भविष्य में युद्धों को भड़काने वाली परिस्थितियों को हवा भी देता है। यदि हम दुनिया में सही मायनों में शांति स्थापना की आकांक्षा रखते हैं तो उसके लिये एकजुटता की जरूरत होती है न कि खोखले नारों की।

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