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तंत्र पर पटाखाें के ठहाके

खुशी व सामाजिक जवाबदेही का फर्क
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सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली में जानलेवा प्रदूषण के दौरान जमकर हुई पटाखेबाजी पर तल्ख टिप्पणी की है। प्रदूषण संकट को देखते हुए इस टिप्पणी से सहमत हुआ जा सकता है कि कोई भी धर्म प्रदूषण फैलाने वाली गतिविधि को प्रोत्साहित नहीं करता। यही वजह है कि कोर्ट ने दिल्ली सरकार को निर्देश दिया कि राष्ट्रीय राजधानी में पटाखों पर लगे प्रतिबंध को सालभर के लिये लागू करने हेतु एक पखवाड़े के भीतर ही फैसला ले। वहीं दूसरी ओर सरकारों को जिम्मेदारी का अहसास कराते हुए कोर्ट ने याद दिलाया कि अनुच्छेद 21 के तहत प्रदूषण मुक्त वातावरण में रहना आम नागरिक का मौलिक अधिकार है। वहीं कोर्ट ने धर्म की वास्तविक व्याख्या को बताते हुए स्पष्ट किया कि किसी भी धर्म द्वारा किसी ऐसे काम को प्रोत्साहित नहीं किया जाता है, जो समाज या व्यक्ति के लिये नुकसानदायक हो। यानी धर्म तो मानव मात्र के कल्याण के लिये सदैव आकांक्षी रहता है। निश्चित रूप से अदालत ने स्पष्ट संदेश देने का प्रयास किया कि किसी सामूहिक या व्यक्तिगत खुशी के लिये विषम परिस्थितियों में पटाखे चलाना दूसरे व्यक्ति के नागरिक अधिकारों का भी हनन है। विडंबना यह है कि पटाखों पर प्रतिबंध को लोग धार्मिक अस्मिता से जोड़ लेते हैं। हम यह याद नहीं रखते हैं कि पटाखों से होने वाले प्रदूषण से उन लोगों पर क्या गुजरती होगी, जो श्वसनतंत्र से जुड़े रोगों से जूझ रहे हैं। कमोबेश यही स्थिति उम्रदराज नागरिकों, अस्पतालों में उपचार हेतु भर्ती लोगों तथा धमाकों के प्रति अधिक संवेदनशील व्यक्तियों को लेकर भी होती है। यह सवाल तार्किक है कि क्या खुशी की अभिव्यक्ति का कोई रिश्ता पटाखों से होता है? वह भी उस स्थिति में जब देश की राजधानी दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानियों में गिनी जाती हो। कोर्ट ने इस मामले में दिल्ली पुलिस को भी फटकार लगाई कि वह पटाखों पर लगे प्रतिबंध को अमल में नहीं ला पायी। हालांकि, पुलिस की मजबूरी का एक पहलू पर्व की संवेदनशीलता व इस मामले में राजनीतिक हस्तक्षेप भी रहता है।

हालांकि, आलोचक पर्व-त्योहार पर पटाखों पर प्रतिबंध की तार्किकता को लेकर सवाल भी उठाते हैं। उनका कहना होता है कि यदि दिवाली पर पटाखों पर प्रतिबंध लगता है तो अन्य धर्मों के पर्वों पर यह नियम-कानून लागू होना चाहिए। वे सवाल उठाते हैं कि क्या पटाखों पर प्रतिबंध से दिल्ली का प्रदूषण खत्म हो जाएगा? क्या वास्तव में प्रतिबंध के परिणाम प्रभावी होते हैं? क्या अदालत प्रदूषण के अन्य बड़े कारकों के प्रति भी ऐसा ही सख्त रवैया अपनाती है? वे मानते हैं कि पटाखे चलाने की गतिविधि एक-दो दिन की होती है,लेकिन प्रदूषण तो राजधानी में बारह महीनों होता है। कहा जाता है कि पिछले कुछ वर्षों में सर्दियों में दिल्ली समेत देश के व्यापक क्षेत्रों में वातावरण जहरीला हो जाता है। आलोचकों का तर्क होता है कि राज्य सरकारें व प्रशासन प्रदूषण नियंत्रण में अपनी नाकामी का ठीकरा पटाखों के सिर फोड़ते हैं। लेकिन सवाल सिर्फ दिल्ली का ही नहीं है राजधानी की आबोहवा में प्रदूषण बढ़ाने में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में आने वाले अन्य राज्यों में स्थित शहरों की भूमिका भी होती है। वहीं एक सवाल यह भी रहता है कि शीर्ष अदालत दिल्ली की स्थिति को लेकर तो सख्त रहती है लेकिन देश के अन्य राज्यों के कई शहरों में दिल्ली जैसा प्रदूषण विद्यमान रहने पर ऐसी सक्रियता नजर नहीं आती। देश के अन्य भागों की ओर भी ध्यान देने की जरूरत है। साथ ही आबोहवा में जहर घोलने वाले प्रमुख कारकों की तलाश करके इस दिशा में गंभीर पहल किए जाने की भी आवश्यकता है। इसके अलावा इस दिशा में सामाजिक जागरूकता अभियान चलाकर नागरिकों को वातावरण साफ रखने के मिशन से जोड़ा जाना चाहिए। एक हकीकत यह भी है कि जागरूकता के अभाव में हम जीवन-व्यवहार में बहुत कुछ ऐसा करते हैं जो कालांतर प्रदूषण बढ़ाने में भूमिका निभाता है। निश्चित रूप से पूरे देश में यह सोच विकसित करनी होगी कि हमारे किसी कार्य से दूसरे व्यक्ति के जीवन के अधिकारों का अतिक्रमण नहीं किया जाना चाहिए।

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