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पर्व की अस्मिता

तन-मन के अंधेरे भी दूर करे उजाला
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उल्लास-उमंग के साथ राष्ट्र की आर्थिकी को नई ऊर्जा देने वाला त्योहार दीपावली सही मायने में सादगी व उजाले का त्योहार है। महानगरीय जीवन की एकरसता व तनाव से मुक्ति दिलाने वाली पर्व शृंखला के जहां आध्यात्मिक-धार्मिक मायने हैं, वहीं ये पर्व हमें नई ऊर्जा से भर देते हैं। हमारे रिश्तों को नई ऊष्मा देते हैं। एक मायने में लक्ष्मी हर छोटे-बड़े काम-धंधे से लेकर उद्योगों में इस पर्व के दौरान आती है। समृद्धि की रोशनी श्रम और सकारात्मक जीवन व्यवहार से आती है। लेकिन हाल के वर्षों में हमारी जीवन शैली और कार्य संस्कृति में व्यापक बदलाव आए हैं। जीवन व्यवहार में कृत्रिमता और दिखावे की संस्कृति का बोलबाला हुआ, जिसकी गहरी छाया हमारे पर्व-त्योहारों पर भी नजर आई है। भारत पर्व-त्योहारों का देश हैं, जिनके गहरे निहितार्थ हैं। ये पर्व-त्योहार हमारे ऋतु चक्र से जुड़े हैं, जिसका आधार हमारी किसानी संस्कृति है। वर्षा ऋतु से जीवन में आई नीरसता व इसके प्रतिकूल प्रभावों से मुक्ति की राह दिखाती है पर्व शृंखला। लेकिन हमें सही मायने में पर्व का मर्म समझना चाहिए। सादगी, सात्विकता और इसके आध्यात्मिक पक्ष के गहरे निहितार्थों की हमें अनदेखी नहीं करनी चाहिए। लेकिन हाल के वर्षों में यह त्योहार दिखावे व धन के भौंडे प्रदर्शन का सबब बनता जा रहा है। इस पर्व का असली मकसद यही है कि गरीबी की देहरी पर भी उजाला हो। प्रकाश का ही नहीं, समृद्धि का भी। उसमें समाज की बड़ी भागेदारी जरूरी है।

यह विडंबना ही है कि हाल के वर्षों में इस पर्व के मर्म के विपरीत कृत्रिमता, दिखावा, परंपरा के सतही विकल्प और औपचारिकताओं ने गहरी पैठ बना ली है। बाजार इतना हावी है कि वह दिवाली की पूजा आपको ऑनलाइन उपलब्ध करा सकता था। दीया-बाती, फूलों की सजावट, मूर्तियों, सरसों के तेल, पटाखों से लेकर तमाम त्योहार में उपयोग की जाने वाली वस्तुओं के हमने नये-नये कृत्रिम विकल्प तलाश लिये हैं। विडंबना देखिए कि देवी-देवताओं की मूर्तियों से लेकर बिजली की झालरें तक चीन से आने लगी। लगाते रहें आप स्वदेशी का नारा, लोगों को फर्क नहीं पड़ता कि दोनों देशों में व्यापार संतुलन लगातार बिगड़ रहा है। पहले घरों में तरह-तरह के पकवान बनते थे ताकि परिवार व मित्रों को पौष्टिक व स्वास्थ्यवर्धक मिठाई मिल सके। जबरदस्ती लक्ष्मी को घर बुलाने वाले लोगों की मिठाई की दुकानों में मिलावट व गुणवत्ता से समझौते करने की शिकायत पर प्रशासन की कार्रवाई की खबरें आ रही हैं। शहरी जीवन में दुधारू पशु बहुत कम दिखते हैं लेकिन दूध-पनीर-मावा जितना चाहे ले लो। मिठाइयों में कृत्रिम रंगों व चीनी की भरमार है, जिसके चलते भारत को मधुमेह की राजधानी कहा जाने लगा है। उजाले व मेल-मिलाप के इस त्योहार पर गिफ्ट संस्कृति की गहरी छाया नजर आती है। त्योहार नहीं लोगों के विभिन्न संकीर्ण लक्ष्य इसके जरिये साधे जाते हैं। प्रभावशाली अधिकारियों, मंत्रियों व नौकरशाहों को साधने का यह अचूक मंत्र बना हुआ है। वे भूल जाते हैं कि ये कुर्सी को सलाम है, पर्व का मर्म नहीं। रिश्ते नाते भी अब तो गिफ्ट के बोझ तले दबे नजर आते हैं।

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