बेरोजगारी की बेड़ियां
अमानवीयता की हद पार करती अमेरिका इमिग्रेशन एंड कस्टम इन्फोर्समेंट एजेंसी के संवेदनहीन तौर-तरीकों का त्रास झेलते 54 हरियाणवी युवा शनिवार को दिल्ली हवाई अड्डे पर उतरे। सुनहरे सपनों की आस लिए अमेरिका गए इन युवाओं ने जिन त्रासदियों का सामना किया, वो उन युवाओं के लिये सबक भी है, जो अपनी योग्यता व क्षमता का मूल्यांकन किए बिना बस विदेश जाने की धुन में लगे रहते हैं। निस्संदेह, इन युवाओं ने बेहतर भविष्य के लिये रिस्क लेने का जज्बा तो दिखाया, लेकिन एजेंटों के छलावे के चलते डंकी रूट पर फिसल गए। इन युवाओं को इस बात का भान नहीं रहा कि घोर दक्षिणपंथी रुझान वाले ट्रंप के शासन में प्रवासियों के साथ कैसी क्रूरता व भेदभाव किया जा रहा है। जिसके चलते उनके साथ अमेरिका में अपराधियों जैसा सुलूक किया है। उन्हें जेल और अपराधियों के लिये बने कैंपों में रखा गया। युवाओं ने आरोप लगाया कि जेलों में गर्मी में हीटर और सर्दी में एसी चलाकर रखा जाता था। शाकाहारियों को मांस दिया जाता था और न खाने पर सिर्फ सूखी रोटी। खेत बेचकर-कर्ज लेकर उज्ज्वल भविष्य के लिये अमेरिका गए युवा अपराधियों की तरह स्वदेश लौटे। समाचार माध्यमों में प्रकाशित चित्रों में इन हताश युवाओं को अपराधबोध से ग्रसित देखा गया। विडंबना देखिए कि कई युवा अपना खेत बेचकर और चालीस-पचास लाख एजेंट को देकर विदेश गए, लेकिन डंकी रूट में धकेल दिए गए। उस खतरनाक रास्ते पर जहां हर पल मौत का खतरा बना रहता है। परिवार वालों को इस बात का सुकून जरूर होगा कि कम से कम उनके बच्चे सकुशल तो घर लौट आए है। वो बात अलग है कि इन युवाओं को अपने असफल प्रयास का मलाल जीवनपर्यंत सालता रहेगा। कुछ युवा इससे अवसादग्रस्त हो सकते हैं। कुछ हताश युवा भटकाव की राह में गुजर सकते हैं। निश्चय ही यह घटनाक्रम इन युवाओं के लिये एक त्रासदी से कम नहीं रहेगा। सुखमय जीवन की आस ने नारकीय जीवन जीने को मजबूर कर दिया। वे बेड़ियों में देश लौटे।
बहरहाल, इन युवाओं की अपमानजनक वापसी कई ज्वलंत सवालों को भी जन्म देती है। यह हमारी नीति-नियंताओं की विफलता ही है कि हम युवाओं को उनकी योग्यता के अनुसार काम नहीं दे पा रहे हैं। हम कहते नहीं थकते कि भारत दुनिया में सबसे ज्यादा आबादी वाला देश है। सवाल यह है कि इस युवा शक्ति को दिशा देने के लिये हमने क्या किया? तमाम प्रलोभन व लोकलुभावने वादे करने वाले राजनीतिक दलों की प्राथमिकता युवाओं को रोजगार देना क्यों नहीं होती? सिर्फ चुनाव आने पर करोड़ों रोजगार देने के वादे तो किए जाते हैं, लेकिन सत्ता में आने के बावजूद वे पूरे नहीं होते। दोष हमारी शिक्षा व्यवस्था का भी है जो डिग्री तो देती है, लेकिन रोजगार की गारंटी नहीं देती। दोष हमारी युवा पीढ़ी की उस मानसिकता का भी है जो सिर्फ नौकरी और उसमें भी सरकारी नौकरी को प्राथमिकता देती है। निजी क्षेत्र भी सिर्फ मुनाफे को प्राथमिकता देता है और तकनीक के जरिये रोजगार के अवसरों में कटौती को प्राथमिकता देता है। ऐसे देश में, जहां आबादी आज दुनिया में सबसे ज्यादा है, हमें श्रम प्रधान उद्योगों को प्राथमिकता देनी चाहिए। जिसमें अधिक लोगों को रोजगार मिल सके। कायदे से देश में बेरोजगारी का ग्राफ देखते आने वाले दशकों के लिये रोजगार का रोडमैप बनना चाहिए। लेकिन सत्ता भी सस्ती लोकप्रियता वाले कामों के जरिये अपना वोट बैंक सुधारने में लगी रहती है। यहां सवाल युवाओं व अभिभावकों की सोच का भी है, जो खेत बेचकर बेटे को विदेश भेजने की फिराक में रहते हैं। जितना पैसा उन्होंने विदेश भेजने वाले एजेंटों को दिया, उसमें क्या वे स्वरोजगार नहीं कर सकते थे? माना कि आज खेती-किसानी युवाओं को नहीं लुभाती, लेकिन वे इस खेत पर गैर परंपरागत खेती व फल-फूल आदि नकदी फसलों के विकल्प तो तलाश सकते हैं। सवाल हमारी प्रवर्तन एजेंसियों पर है कि क्यों युवाओं को विदेश भेजने वाले एजेंटों पर कार्रवाई नहीं करती, जो लाखों रुपये लूटकर इन्हें नर्क में धकेल देते हैं। वापस आए इन युवाओं के जरिये उन तक पहुंचा जा सकता है।
