पूरी दुनिया में जलवायु परिवर्तन का मानवीय जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव का शोर तो लंबे समय से सुनाई दे रहा है, लेकिन इसकी घातकता का अंदाजा कुछ समय पहले प्रकाशित प्रमाणिक वैश्विक सर्वेक्षण से सामने आया है। सर्वे बताता है कि भारत में पिछले साल बीस दिन लू का सामना करना पड़ा। इसके साथ ही जलवायु परिवर्तन कारकों से अधिक गर्म हवाएं चलीं। यह भी कि वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के चलते 247 अरब घंटों का नुकसान हुआ, जिसके चलते श्रम क्षमता में कमी आने से 194 अरब डॉलर का नुकसान देखा गया। ‘द लांसेट काउंटडाउन ऑन हेल्थ एंड क्लाइमेट चेंज 2025’ रिपोर्ट के अनुसार पिछले साल जलवायु परिर्वतन के कारकों से कृषि क्षेत्र में 66 फीसदी और निर्माण क्षेत्र में बीस फीसदी का नुकसान हुआ। यह रिपोर्ट इशारा करती है कि अत्यधिक गर्मी के कारण श्रम क्षमता में कमी के कारण 194 अरब डॉलर की संभावित आय का नुकसान हुआ। उल्लेखनीय है कि यह रिपोर्ट विश्व के 71 शैक्षणिक संस्थानों और संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों के 128 अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों ने तैयार की, जिसका कुशल नेतृत्व यूनिवर्सिटी कालेज लंदन ने किया। इस रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य के बीच संबंधों का अब तक सबसे व्यापक आकलन किया गया है। रिपोर्ट बताती है कि जीवाश्म ईंधनों पर अत्यधिक निर्भरता और जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन की विफलता से लाखों लोगों की जिंदगियां, स्वास्थ्य और आजीविका खतरे में हैं। रिपोर्ट के अनुसार स्वास्थ्य पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को मापने वाले 20 में से बारह संकेतक अब तक के सबसे उच्चतम स्तर तक जा पहुंचे हैं। रिपोर्ट बताती है कि साल 2020 से 2024 के बीच भारत में औसतन हर साल दस हजार मौतें जंगल की आग से उत्पन्न पीएम 2.5 प्रदूषण से जुड़ी थीं। चिंता की बात यह है कि यह वृद्धि 2003 से 2012 की तुलना में 28 फीसदी अधिक है, जो हमारी गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए।
विडंबना यह है कि ‘द लांसेट’ की रिपोर्ट में सामने आए गंभीर तथ्यों के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस संकट से मिलकर जूझने की ईमानदार कोशिश होती नजर नहीं आती। यह निर्विवाद तथ्य है कि दुनिया के विकसित देश अपनी जिम्मेदारी से लगातार बचने के प्रयास कर रहे हैं। खासकर हाल के वर्षों में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जलवायु परिवर्तन को लेकर जो गैरजिम्मेदाराना रवैया अख्तियार किया है, उससे नहीं लगता कि वैश्विक स्तर पर इस संकट से निपटने की कोई गंभीर साझा पहल निकट भविष्य में सिरे चढ़ेगी। विकसित देश इस दिशा में मानक पेरिस समझौते की संस्तुतियों को नजरअंदाज करते नजर आते हैं। वे विकास के तमाम संसाधनों का निर्मम दोहन करने के बाद अपनी गरीब आबादी को को गरीबी के दलदल से बाहर निकालने में जुटे विकसित देशों पर जलवायु परिवर्तन से बचाव के उपायों को लागू करने के लिये लगातार दबाव बना रहे हैं। ‘द लांसेट काउंटडाउन ऑन हेल्थ एंड क्लाइमेट चेंज 2025’ रिपोर्ट के अनुसार, मानवजनित पीएम-2.5 प्रदूषण भारत में 2022 के दौरान 17 लाख मौतों के लिए जिम्मेदार था। इसमें कोयला और तरल गैस जैसे जीवाश्म ईंधनों से होने वाले उत्सर्जन का 44 फीसदी योगदान था। इसके साथ ही सड़क परिवहन में पेट्रोल के उपयोग से पैदा प्रदूषण से करीब 2.69 लाख मौतें हुईं। रिपोर्ट में दर्शाई गई सबसे बड़ी चिंता श्रम के घंटों के नुकसान और कृषि क्षेत्र में 66 फीसदी नुकसान का होना है। यह संकट जहां बड़े विस्थापन को जन्म दे सकता है, वहीं हमारी खाद्य शृंखला संकटग्रस्त हो सकती है, जिसके लिए देश में जलवायु परिवर्तन के अनुकूल फसलों की किस्मों की खोज जरूरी हो जाती है। यदि हम ऐसा कर पाते हैं तो फसलों पर जलवायु परिवर्तन प्रभावों को कम किया जा सकता है। दुनिया के सबसे बड़ी आबादी वाले देश के सामने यह मुश्किल सबसे बड़ी है। वहीं भारत सरकार और किसानों के सामने यह वर्तमान की सबसे बड़ी चुनौती है। ‘द लांसेट काउंटडाउन ऑन हेल्थ एंड क्लाइमेट चेंज 2025’ रिपोर्ट में उजागर तथ्य हमारी आंख खोलने वाले व सचेतक हैं।

