Tribune
PT
About the Dainik Tribune Code Of Ethics Advertise with us Classifieds Download App
search-icon-img
Advertisement

बीमार भविष्य की नींव

एक लाख स्कूलों में सिर्फ एक अध्यापक

  • fb
  • twitter
  • whatsapp
  • whatsapp
Advertisement

यह आंंकड़ा हमारे शिक्षा तंत्र की विफलता को दर्शाता है कि एक लाख से अधिक स्कूलों की पढ़ाई सिर्फ एक शिक्षक के भरोसे चल रही है। एक स्कूल की सारी कक्षाओं को एक शिक्षक कैसे पढ़ाता होगा? छात्र-छात्राएं कैसी और कितनी शिक्षा ग्रहण कर पाते होंगे, अंदाजा लगाना कठिन नहीं है। शिक्षा मंत्रालय के हालिया आंकड़े बताते हैं कि शैक्षणिक वर्ष 2024-25 में एक लाख चार हजार स्कूल ऐसे थे, जो केवल एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं। इन स्कूलों में करीब पौने चौंतीस लाख विद्यार्थी अध्ययन कर रहे हैं। बताया जाता है कि आंध्र प्रदेश में ऐसे स्कूलों की संख्या सबसे ज्यादा थी, जबकि उसके बाद उत्तर प्रदेश, झारखंड, महाराष्ट्र, कर्नाटक और लक्षद्वीप का स्थान है। एक तो हमारे देश में शिक्षा का बजट पहले ही बहुत कम है, फिर उस धन का सही उपयोग नहीं हो पाता। इसमें दो राय नहीं कि प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा के गिरते स्तर के मूल में हमारे नीति-नियंताओं की अनदेखी ही प्रमुख कारक है। आखिर हम अपने नौनिहालों को कैसी शिक्षा दे रहे हैं? आखिर उनके बेहतर भविष्य की हम कैसे उम्मीद करें? जाहिर बात है कि एक शिक्षक सामाजिक विषय, भाषा, विज्ञान, अंग्रेजी और गणित में माहिर नहीं हो सकता। एक शिक्षक छात्रों की हाजिरी दर्ज करेगा या पढ़ाई कराएगा? शिक्षा का मतलब छात्रों का सर्वांगीण विकास होता है। उन्हें पढ़ाई के साथ पाठ्यसहगामी क्रियाओं का भी ज्ञान दिया जाना जरूरी होता है। लेकिन जब स्कूलों में पर्याप्त शिक्षक ही नहीं होंगे तो किताबी पढ़ाई कैसी होगी, अंदाजा लगाना कठिन नहीं है। स्कूल में सिर्फ पढ़ाई ही महत्वपूर्ण नहीं होती। बच्चों का शारीरिक विकास पूरी तरह हो, उसके लिए खेल, पीटी और योग जैसी कक्षाओं की सख्त जरूरत होती है। लेकिन जब शिक्षक ही पर्याप्त नहीं होंगे तो शिक्षा के साथ चलने वाली गतिविधियों की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती है। निस्संदेह, हम छात्रों के बीमार भविष्य की बुनियाद ही रख रहे हैं।

सही मायनों में स्कूलों का शिक्षकों की कमी से जूझना शिक्षा विभाग की नाकामी को ही दर्शाता है। यह हमारे सत्ताधीशों की संवेदनहीनता का भी पर्याय है। शिक्षकों की नियुक्ति में जिस बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार के मामले विभिन्न राज्यों में सामने आए हैं, उससे शिक्षा विभाग की प्रदूषित कार्य संस्कृति का बोध होता है। आखिर क्या वजह है कि देश में प्रशिक्षित शिक्षकों की पर्याप्त संख्या होने के बावजूद स्कूलों में शिक्षकों की कमी बनी हुई है। यह स्थिति हमारे तंत्र की विफलता को ही उजागर करती है। एक समस्या यह भी है कि शिक्षक जटिल भौगोलिक स्थितियों वाले स्कूलों में काम करने से कतराते हैं। यदि इन स्कूलों में शिक्षकों की नियुक्ति हो भी जाती है तो वे दुर्गम से सुगम स्कूलों में अपना तबादला ज्वाइन करने के तुरंत बाद करवा लेते हैं। जिसमें राजनीतिक हस्तक्षेप से लेकर विभागीय लेन-देन की भी शिकायत होती रहती है। यही वजह है कि शहरों व आसपास के इलाकों में स्थित स्कूलों में शिक्षकों की तैनाती जरूरत से ज्यादा भी देखी जाती है। कैसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि सड़कों पर बेरोजगारों की लाइन लगी हैं और स्कूलों में शिक्षकों के लाखों पद खाली हैं। बताया जाता है कि माध्यमिक व प्राथमिक विद्यालयों में करीब साढ़े आठ लाख शिक्षकों के पद खाली हैं। इसके बावजूद कि हमारे यहां प्रशिक्षित शिक्षकों की कोई कमी नहीं है। कहने को तो हमारे गाल बजाते नेता भारत को दुनिया में सबसे ज्यादा युवाओं का देश कहते इतराते हैं, लेकिन इन नेताओं से पूछा जाना चाहिए कि कुंठित होती युवा पीढ़ी के लिये उन्होंने क्या खास किया है? नौकरियों की भर्ती निकलती नहीं है। निकलती है तो पेपर आउट होने की खबरें आती हैं। सालों-साल उनके परिणाम नहीं निकलते। यदि परिणाम निकले भी तो फिर धांधली के आरोप लगने लग जाते हैं। फिर मामला वर्षों तक अदालतों में डोलता रहता है। विडंबना यह भी है कि आज सरकारी स्कूलों में गरीब व कमजोर वर्गों के बच्चे ज्यादा भर्ती होते हैं, इसलिए इन स्कूलों की तरफ कोई ध्यान नहीं देता। यदि सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों के बच्चों के लिये इन स्कूलों में पढ़ना अनिवार्य कर दिया जाए तो स्थिति बदल जाएगी।

Advertisement

Advertisement
Advertisement
×