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आत्मघात की नादानी

दिवाली के बाद प्रदूषण की वही कहानी

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यह शर्मसार करने वाली बात है कि दिल्ली की गिनती दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों में हो रही है। जहरीली हवा में सांस लेना मुश्किल होने पर श्वसनतंत्र के रोगियों को किस संत्रास से गुजरना पड़ा होगा, अंदाजा लगाना कठिन नहीं है। दिल्ली में एक्यूआई का स्तर पौने चार सौ के खतरनाक स्तर तक पहुंच जाना कई इंजनों वाली सरकारों और समाज की सामूहिक विफलता को ही दर्शाता है। बताते हैं कि दिल्ली की आबोहवा पिछले पांच सालों के सबसे खतरनाक स्तर तक जा पहुंची है। मजबूरी की स्थिति में दिल्ली सरकार को ग्रैप-2 की सख्त नीतियां लागू करनी पड़ी हैं। निस्संदेह, दिल्ली के प्रदूषण में अकेले पटाखों की ही भूमिका नहीं है, बल्कि लगातार बढ़ती आबादी का बोझ, हर साल बनने वाले एक लाख मकानों के निर्माण से फैलने वाला प्रदूषण तथा प्रतिवर्ष सड़कों पर उतरने वाली लाखों गाड़ियों का उत्सर्जन भी शामिल है। एक नागरिक के रूप में हमारा गैरजिम्मेदार व्यवहार इस संकट को बढ़ाने वाला है। हम कभी पराली जलाने और कभी पटाखे छोड़ने को इस संकट का कारण बताते हैं, लेकिन वास्तव में प्रदूषण के कारक हमारे तंत्र की नाकामी में हैं, जिसकी वजह से दिल्ली के अधिकांश इलाकों में एक्यूआई तीन सौ पचास का आंकड़ा पार कर गया। दीपावली के बाद भी हवा का जहरीला बना रहना बेहद गंभीर विषय है। शायद वजह यह भी हो कि लोगों ने कुछ इलाकों में दो दिन दिवाली मनाई। लेकिन इस सारे प्रकरण में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की कवायदें भी निष्फल ही नजर आईं। ग्रैप-2 का लागू होना स्थिति की गंभीरता को ही दर्शाता है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि दिल्ली में सर्दियों की शुरुआत होने पर वायु गुणवत्ता का संकट गहराने लगता है। जो दिल्ली की दिवाली के बाद प्राणवायु को ही दमघोंटू बनाने लगता है। हर साल शीर्ष अदालत की सक्रियता और सरकारी घोषणाओं के बावजूद स्थिति नहीं सुधरती तो यह हमारी आपराधिक लापरवाही की परिणति भी है।

बहरहाल, कतिपय सामाजिक व धार्मिक संगठनों के सबल आग्रह के बाद भी सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली में सिर्फ पर्यावरण को कम हानि पहुंचाने वाले ग्रीन पटाखों की अनुमति दी थी, लेकिन प्रदूषण का स्तर बता रहा है कि यह प्रयास विफल रहा है। लोगों ने ग्रीन पटाखों की आड़ में प्रदूषण फैलाने वाले पटाखे जमकर फोड़े हैं। जो लोगों के आत्मघाती व्यवहार का ही परिचायक है। वैसे पर्यावरणविदों का मानना है कि ग्रीन पटाखे प्रदूषण नहीं फैलाते, यह सोच तार्किक नहीं है। दिल्ली में प्रदूषण की मौजूदा स्थिति को देखते हुए इस तर्क से सहमत हुआ जा सकता है। अंदाजा लगाना कठिन नहीं है कि बच्चों और बुजुर्गों पर इस संकट का कितना नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा होगा। देश में लाखों लोग श्वास संबंधी रोगों के कारण जीवन गंवा रहे हैं। सवाल यह है कि इस संकट को दूर करने के लिए, जो ग्रैप-2 सिस्टम लागू किया जाता है, क्या उसे इस संकट के हर साल आने की स्थिति को देखते हुए पहले से नहीं लागू किया जा सकता? धूल को उड़ने से रोकने और हवा में प्रदूषण कम करने के लिए पानी का छिड़काव क्या शेष महीनों में नहीं किया जाता? अब ट्रैफिक को नियंत्रित करने की बात की जा रही है ताकि सिग्नल पर गाड़ियां ज्यादा देर खड़ी न हों, जिससे प्रदूषण अधिक नहीं हो। आखिर क्यों हम सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को दुरुस्त नहीं करते ताकि सड़कों पर निजी वाहनों की संख्या को कम किया जा सके? कहा जा रहा है कि इलेक्ट्रिक वाहन भी प्रदूषण की दृष्टि से निरापद नहीं हैं। सीएनजी गाड़ियों को प्रोत्साहन को लेकर भी बड़े नीतिगत सुधार नहीं किए जा सके हैं। इसके बावजूद, सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जब तक लोगों को यह अहसास नहीं होगा कि त्योहार के नाम पर जमकर जहरीले पटाखे छुड़ाना एक आत्मघाती कदम है, तब तक कोर्ट और सरकार के प्रयास विफल ही साबित होंगे। इसके लिए देश के राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र के प्रतिनिधियों को साझी पहल करनी होगी। यह संकट सिर्फ दिल्ली या एनसीआर का नहीं है, मुंबई, कोलकाता आदि अनेक महानगरों के घातक प्रदूषण की चपेट में आने की खबरें हैं।

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