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मुफ्त की राजनीति का हश्र

पंजाब-हिमाचल की बढ़ती आर्थिक मुश्किलें
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धीरे-धीरे पंजाब व हिमाचल सरकारों के मुखियाओं को अहसास होने लगा है कि वित्तीय संकट दरवाजे पर दस्तक दे रहा है। लगातार बढ़ते राजस्व घाटे व बड़ी होती देनदारियों से सत्ता में बैठे राजनेताओं को बखूबी पता चल रहा है कि सस्ती लोकप्रियता पाने के लिये मुफ्त का जो चंदन घिसा जा रहा था, वह राज्य की अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ रहा है। यहां तक कि कर्मचारियों को वेतन व रिटायर कर्मियों को समय पर पेंशन देने में मुश्किल आ रही है। गाल बजाकर बड़ी-बड़ी घोषणाएं करने वाले राजनेता तनख्वाह व पेंशन की तारीख आगे बढ़ाकर दावा कर रहे हैं कि इससे राज्य को आर्थिक बचत होने वाली है। संवेदनहीन राजनेताओं को इस बात का अहसास नहीं है कि वेतन पर आश्रित कर्मियों को राशन-पानी, बच्चों की स्कूल की फीस व लोन की ईएमआई समय पर चुकानी होती है। जिसको लेकर बैंक कोई रहम नहीं दिखाते हैं। राजनेताओं के आय के तमाम वैध-अवैध स्रोत होते हैं, कर्मचारी तो इकलौती तनख्वाह के भरोसे जीवन-यापन करता है। बहरहाल, चुनाव से पूर्व मुफ्त प्रलोभनों की तमाम घोषणाएं करने वाले राजनेताओं को अहसास हो चला है कि राज्य के खजाने में उनकी राजनीतिक विलासिता का बोझ ढोने का दमखम नहीं बचा है। विभिन्न दलों की शाहखर्ची ने राज्यों की आर्थिकी की हालत पहले ही पस्त कर रखी है। राजनेताओं ने कभी वित्तीय अनुशासन का पालन नहीं किया। दिल्ली से लेकर पंजाब तक आप सरकारों ने तमाम तरह की मुफ्त की रेवड़ियां बांटी हैं। दरअसल, जिस भी नागरिक सुविधा को मुफ्त किया जाता है, उस विभाग का तो भट्टा बैठ जाता है। फिर उसकी आर्थिकी कभी नहीं संभल पाती। कैग की हालिया रिपोर्ट बताती है कि पंजाब में एक निर्धारित यूनिट तक मुफ्त बिजली बांटे जाने से राज्य के अस्सी फीसदी घरेलू उपभोक्ता मुफ्त की बिजली इस्तेमाल कर रहे हैं। जाहिरा बात है कि मुफ्त में कुछ नहीं मिलता। मुफ्त की राजनीति के चलते इन महकमों के विस्तार व विकास पर ब्रेक लग जाता है।

बहरहाल, पंजाब के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी कैग की हालिया रिपोर्ट राज्य की वित्तीय प्राप्तियों और खर्चे के बीच बढ़ते राजकोषीय अंतर की ओर इशारा करती है। बीते वित्तीय वर्ष की आर्थिक बदहाली को दर्शाती कैग की रिपोर्ट बताती है कि कैसे राज्य सरकार की आय का बड़ा हिस्सा पुराने कर्ज चुकाने में चला जा रहा है। यह भी चिंताजनक है कि राज्य का राजस्व घाटा, सकल राज्य घरेलू उत्पाद के 1.99 फीसदी लक्ष्य के मुकाबले 3.87 फीसदी तक जा पहुंचा है। यह बेहद चिंताजनक स्थिति है कि राज्य का सार्वजनिक ऋण जीएसडीपी का 44.12 फीसदी हो गया है। यदि अब भी सत्ताधीश वित्तीय अनुशासन का पालन नहीं करते तो निश्चित ही राज्य को बड़ी मुश्किल की ओर धकेलने जैसी बात होगी। जिसका उदाहरण सामने है कि बीते माह का वेतन निर्धारित समय पर नहीं मिल पा रहा है। इसके बावजूद यदि राजनेता शाहखर्ची से बाज नहीं आते और मुफ्त की रेवड़ियों को बांटने का क्रम जारी रखते हैं तो उसकी कीमत न केवल टैक्स देने वालों को चुकानी पड़ेगी बल्कि आम लोगों के जीवन पर भी इसका प्रतिकूल असर पड़ेगा। वहीं दूसरी ओर राज्य का खर्चा जहां 13 प्रतिशत की गति से बढ़ रहा है, वहीं राजस्व प्राप्तियां 10.76 फीसदी की दर से बढ़ रही हैं। जाहिर है, ये अंतर राज्य की आर्थिक बदहाली की तस्वीर ही उकेरता है। अभी भी वक्त है कि राजनेता सस्ती लोकप्रियता पाने के लिये सब्सिडी की राजनीति से परहेज करें और वित्तीय अनुशासन से राज्य की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का प्रयास करें। उन्हें अपने घोषणापत्र में यह बात स्पष्ट करनी चाहिए कि वे जो लोकलुभावनी योजना लाने जा रहे हैं, उसके वित्तीय स्रोत क्या होंगे? कैसे व कहां से यह धन जुटाया जाएगा? साथ ही जनता को भी सोचना चाहिए कि मुफ्त के लालच में दिया गया वोट कालांतर उनके हितों पर भारी पड़ेगा। उन्हें सोचना होगा कि कभी-कभी मुफ्त बहुत महंगा पड़ता है। हमें अपने छोटे स्वार्थों के लिये राज्य के बड़े हितों से खिलवाड़ नहीं करना चाहिए।

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