ब्राजील के बेलेम में संपन्न कॉप-30 सम्मेलन में जारी ‘जलवायु जोखिम सूचकांक-2026’ रिपोर्ट में उल्लेखित आंकड़े भारत से जुड़ी जलवायु संकट की भयावह तस्वीर दिखाते हैं। रिपोर्ट बताती है कि भारत दुनिया में जलवायु आपदाओं से सबसे ज्यादा प्रभावित पहले दस देशों में शामिल हैं। यह डराने वाली रिपोर्ट बताती है कि पिछले तीन दशक में भारत में आई जलवायु संकट से जुड़ी आपदाओं में करीब अस्सी हजार लोगों को मौत का ग्रास बनना पड़ा। इतना ही नहीं करीब 170 अरब अमेरिकी डॉलर का नुकसान भी देश को उठाना पड़ा है। ये आंकड़े जलवायु संकट के देश पर पड़ने वाले घातक प्रभावों की तस्वीर उकेरते हैं। जो बताते हैं कि इस संकट से उबरने के प्रयासों में और तेजी लाने की जरूरत है। निश्चित तौर पर इस दिशा में यदि युद्ध स्तरीय प्रयास तेज नहीं किए जाते तो भविष्य में परिणाम और घातक हो सकते हैं। ये प्रयास केवल सरकारी स्तर पर ही नहीं, सामाजिक स्तर पर भी तेज करने की जरूरत है। जागरूकता अभियानों में भी तेजी लाने की जरूरत है। इस संकट ने फसलों पर पड़ने वाले व्यापक प्रभाव से हमारी खाद्य शृंखला पर भी संकट मंडरा सकता है। हमें 140 करोड़ से अधिक आबादी वाले देश का पेट भरने के लिये इस दिशा में शोध-अनुसंधान के साथ व्यापक किसान जागरूकता कार्यक्रम भी चलाने की जरूरत है। दरअसल, जलवायु संकट के चलते देश में जो ज्यादा नुकसान हुआ है, उसके पीछे लगातार आ रहे चक्रवात, कुछ इलाकों में सूखे और बाढ़ की लगातार पैदा होती स्थितियां हैं। जाहिर इसके मूल में तेजी से बढ़ता वातावरण का तापमान ही है। जिसका मुख्य कारक ग्लोबल वार्मिंग ही है। निश्चित रूप से भारत में जलवायु संकट की स्थिति लगातार विकट होती जा रही है। निर्विवाद रूप से देश के सामने पैदा मौसमी आपदाओं से हमारे विकास में भी बाधा उत्पन्न हो रही है। जो जीविका संकट भी पैदा कर रहा है।
दरअसल, बेलेम में संपन्न कॉप-30 सम्मेलन में जारी की गई ‘जलवायु जोखिम सूचकांक-2026’ रिपोर्ट उन संकटपूर्ण स्थितियों का भी खुलासा करती है जो जलवायु संकट के कारण पैदा हो रहे हैं। रिपोर्ट बताती है कि पिछले वर्ष भारी बारिश व विनाशक रूप में आई बाढ़ से देश में करीब अस्सी लाख लोग बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। इसमें दो राय नहीं कि भारत सरकार ने जलवायु संकट से निपटने के लिए अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी के समक्ष अपनी प्रतिबद्धता बार-बार जतायी है। इस संकट से उबरने के लिये नवीकरणीय ऊर्जा के विकल्प को युद्ध स्तर पर आगे बढ़ाने का प्रयास भी किया है। देश में कार्बन उत्सर्जन को कम करने में नवीकरणीय ऊर्जा की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। देश वनों का दायरा को भी बढ़ाने की जरूरत है। विकास देश की प्राथमिकता है, लेकिन यह विकास वनों के विनाश की कीमत पर नहीं होना चाहिए। साथ ही इस दिशा में जो भी कदम उठाये जाएं उनका प्रभाव जमीनी स्तर पर कितना हो रहा है, इस बात का लगातार मूल्यांकन भी जरूरी है। साथ ही रीति-नीतियों को प्रभावी तरीकों से अमलीजामा पहनाने की जरूरत होगी। जिसके लिये लोकतंत्र की सबसे छोटी इकाइयों ग्राम पंचायत से लेकर शहरी निकायों को भी शामिल करने की जरूरत होगी। दरअसल, जलवायु परिवर्तन से उपजा संकट केवल भारत की ही चुनौती नहीं है। यह एक वैश्विक संकट है। जो इस बात से पता चलता है कि पिछले तीन दशकों में नौ हजार से अधिक मौसमी आपदाओं ने पूरी दुनिया में आठ लाख से अधिक लोगों को असमय काल का ग्रास बनाया है। लेकिन इस संकट की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि इसकी सबसे बड़ी कीमत वे विकासशील व गरीब देश चुका रहे हैं, जिनकी वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में सबसे कम भूमिका रही है। दुर्भाग्य से विकासशील देश जहां इन संकटों की दृष्टि से जहां ज्यादा संवेनशील हैं, वहीं इससे मुकाबले के लिये उनके संसाधन सीमित हैं। उनके प्रतिरोध की क्षमता सीमित है। जिन्हें तत्काल व्यापक वित्तीय सहायता की जरूरत है। ऐसे में विकसित देशों का नैतिक दायित्व बनता है कि उनका सहयोग सिर्फ विकासशील देशों को वित्तीय व तकनीकी सहयोग तक सीमित न रहे। साथ ही वे अपने कार्बन उत्सर्जन में भी कमी लाएं।

