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मनरेगा की विसंगति

वित्तीय आवंटन व क्रियान्वयन व्यावहारिक हों
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इसमें दो राय नहीं कि ग्रामीण क्षेत्रों में दृश्य व अदृश्य बेरोजगारी में कमी लाने में महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना यानी मनरेगा का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इस योजना ने जहां एक ओर ग्रामीण उपभोक्ताओं को अपने गांव के पास रोजगार दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है, वहीं अंतर्राज्यीय प्रवास को कम किया है। साथ ही ग्रामीण उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति भी बढ़ी है। काम की तलाश में शहरों को जाने वाले श्रमिकों की संख्या में कमी के भी आंकड़े सामने आए हैं। खासकर कोरोना संकट में जब ग्रामीण महानगरों से पलायन करके बड़ी संख्या में गांव की तरफ लौटे तो इस योजना ने जीवनदायिनी भूमिका निभाई है। लेकिन फिलहाल ग्रामीण अाजीविका के लिये जीवन रेखा कही जाने वाली महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना एक बार फिर धन की कमी से जूझ रही है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस शासन में शुरू की गई मनरेगा योजना राजग सरकार की प्राथमिकताओं में शामिल नहीं है। वार्षिक वित्तीय संकट से जूझ रही मनरेगा योजना के लिए केंद्र सरकार ने वर्ष 2024-25 में 86,000 करोड़ रुपये आवंटित किए थे। इसके बावजूद 4,315 करोड़ मूल्य का वेतन भुगतान लंबित है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2023-24 में इस योजना के केवल छह माह में ही 6,146 करोड़ का घाटा हुआ था। इसी तरह वर्ष 2022-23 में 89,400 करोड़ का संशोधित धनराशि का आवंटन मूल बजट से 33 प्रतिशत अधिक था। निस्संदेह, ग्रामीण श्रमिकों के लिये लायी गई मनरेगा योजना की वित्तीय जरूरतों को पूरा करने के लिये वार्षिक राशि आवंटन को लेकर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। जो केंद्र सरकार की वित्तपोषण की प्राथमिकताओं को लेकर कई प्रासंगिक प्रश्न उठाती है। इस योजना के क्रियान्वयन में वित्तीय तंगी तंत्र की विसंगितयों को ही दर्शाती है। वहीं कांग्रेस ने मनरेगा के अंतर्गत मजदूरी को बढ़ाकर 400 रुपये प्रतिदिन करने की मांग की है। निस्संदेह, यह मांग महंगाई के बीच एक स्थायी समाधान के बजाय एक राजनीतिक दृष्टिकोण को ही दर्शाती है।

निस्संदेह, कांग्रेस की यह मांग राजनीतिक लाभ के लिये एक लोकप्रिय कदम तो हो सकता है, मगर यह योजना की मूल समस्या के कारकों को संबोधित करने में विफल रहती है। मौजूदा वक्त में प्राथमिकता समय पर पर्याप्त धन आवंटन करने तथा प्रणालीगत विसंगतियों को दूर करना होनी चाहिए। दरअसल, भुगतान के लिये अपनायी गई प्रणाली से श्रमिकों को भुगतान में परेशानी आती रही है। आधार कार्ड आधारित भुगतान की ब्रिज प्रणाली और राष्ट्रीय मोबाइल निगरानी प्रणाली जैसे तकनीकी कारकों ने भुगतान की उलझनों को बढ़ाया है। ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट की कनेक्टिविटी की बाधाओं और आधार सत्यापन की आवश्यकताओं के कारण बड़े पैमाने पर जॉब कार्ड हटाए गए हैं। यही वजह है कि अनेक कारणों के चलते वर्ष 2022 में करीब नौ करोड़ श्रमिकों ने इस योजना तक अपनी पहुंच खो दी है। हालांकि, इस प्रणाली को पारदर्शिता बढ़ाने के उपायों के रूप में प्रचारित किया गया। लेकिन ये कदम लाखों श्रमिकों के लिये अाजीविका के मार्ग में बाधा बन गए। उल्लेखनीय है कि मनरेगा को ग्रामीण परिवारों के लिये अाजीविका सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये एक मांग संचालित योजना के रूप में तैयार किया गया था। निस्संदेह, मनरेगा ने ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी के संकट को ही उजागर किया है। ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ती काम की मांग और शहरी क्षेत्रों में नौकरियों की कमी के संकेत लगातार मिलते रहे हैं। निस्संदेह, गांवों में गरीबी उन्मूलन में मनरेगा के योगदान को कम करके नहीं आंका जा सकता। आसन्न बजट में इस योजना से जुड़ी विसंगतियों को दूर करने के लिये गंभीर प्रयास की जरूरत है। सरकार को मनरेगा के लिये एक व्यावहारिक बजट बनाना चाहिए। साथ ही योजना के पारदर्शी क्रियान्वयन के लिये प्रशासनिक बाधाओं को दूर करने को प्राथमिकता देनी चाहिए। निर्विवाद रूप से मनरेगा में मांग के अनुपात में धन का आवंटन लगातार कम हो रहा है। यही वजह है कि फंड की कमी के चलते वर्ष के मध्य में अनुमानित संकट पैदा हो रहा है। जो नीति नियंताओं के इसके क्रियान्वयन के संरचनात्मक अंतर को दर्शाता है। निस्संदेह, इस नीतिगत विसंगति को दूर किया जाना चाहिए।

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