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विचाराधीन कैदियों का संत्रास

न्याय दिलाने के लिये साझी पहल जरूरी
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यह तथ्य चिंताजनक है कि भारतीय जेलों में क्षमता से अधिक कैदियों को रखा जा रहा है। इन कैदियों में 75 प्रतिशत उन कैदियों का है जो विचाराधीन हैं। ऐसे में केंद्रीय गृह मंत्री की वह घोषणा उम्मीद जगाती है जिसमें कहा गया है कि 26 नवंबर को संविधान दिवस तक अपनी अधिकतम सजा की एक तिहाई अवधि काट चुके कैदियों के लिये न्याय सुनिश्चित करने को लेकर सरकार प्रतिबद्ध है। निस्संदेह, इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए, लेकिन यह न्याय सुनिश्चित करने के मार्ग में चुनौतियां बहुत अधिक हैं। विडंबना यह है कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 479 जैसे हालिया विधायी सुधारों के बावजूद प्रणालीगत विसंगतियां बनी हुई हैं। विचाराधीन कैदियों की रिहाई में तेजी लाने के सुप्रीम कोर्ट के रुख ने एक जटिल समस्या के निराकरण की जरूरत को बताया है। दरअसल, नौकरशाही की सुस्त कार्यप्रणाली के चलते जेल में बंद विचाराधीन कैदियों की रिहाई में देरी होती रही है। यही वजह है कि गरीब कैदियों के लिये वित्तीय सहायता के प्रावधान जैसी सहायक योजनाओं के बावजूद क्रियान्वयन असंगत बना हुआ है। जिसके चलते बड़ी संख्या में विचाराधीन कैदी जेलों में बंद हैं। दरअसल, समस्या की जड़ आपराधिक न्याय प्रणाली में निहित रही है। जो सुधारात्मक और पुनर्वास की प्राथमिकताओं वाले न्याय की बजाय दंडात्मक उपायों को प्राथमिकता देती है। वहीं जमानत की शर्तों को उदार बनाने में न्यायिक हिचकिचाहट, पात्र कैदियों की पहचान करने में प्रणालीगत देरी के चलते इस मुद्दे को जटिलता में उलझा देती है। वहीं दूसरी ओर कानूनी सेवा प्राधिकरणों के बजाय जिला कलेक्टरों पर इस योजना की निर्भरता ने इस प्राथमिकता को गौण बना दिया है। दरअसल, जेलों में कैदियों की भीड़ कम करने के लिये देश को प्रतीकात्मक समय सीमा से आगे जाने की जरूरत है। न्याय सुनिश्चित करने के लिये हमें समीक्षा समितियों के माध्यम से पहचान और रिहाई की प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करना होगा, वहीं सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी इस पहल में शामिल करना आवश्यक है।

यद्यपि प्रौद्योगिकी एकीकरण और सुधारों के गृहमंत्री अमित शाह के आश्वासन उम्मीद जगाते हैं, लेकिन क्रियान्वयन में तेजी लाने की जरूरत है। निस्संदेह, प्रणालीगत बाधाओं को दूर करने के लिये न्यायपालिका, कानून प्रवर्तन एजेंसियों तथा नागरिक समाज के प्रतिनिधियों को मिलकर कार्य करना चाहिये। हमें याद रखना जरूरी है कि न्याय मिलने में देरी का होना न केवल कैदियों को न्याय से वंचित करना है बल्कि यह संविधान में निहित व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का भी अतिक्रमण है। निस्संदेह, विचाराधीन कैदियों की दशा में सुधार करना मानवीय गरिमा के प्रति देश की प्रतिबद्धता की परीक्षा भी है। ऐसे में सलाखों के पीछे कैद करीब पांच लाख कैदियों की आवाज को अनसुना नहीं किया जाना चाहिए। यह तार्किक व ठोस कार्रवाई करने का वक्त भी है। तभी विचाराधीन कैदियों को खुली हवा में सांस लेने का मौका मिल सकेगा। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि जेलों में जो जरूरत से ज्यादा कैदी भरे हुए हैं उनमें अधिकांश गरीब व वंचित तबके के लोग हैं। उनमें ऐसे गरीब लोगों की संख्या अधिक है जिनकी जमानत लेने वाला भी कोई नहीं है। नीति नियंताओं को याद रखना चाहिए कि जेलों का मकसद परिस्थितिवश अपराध की गलियों में फिसले लोगों के जीवन में सुधार होता है न कि सिर्फ दंडित करना। दुर्दांत व पेशेवर अपराधियों को छोड़ दें तो विषम हालात या आवेश में अपराध कर बैठे कैदियों की सोच बदलकर उन्हें जिम्मेदार नागरिक बनाना जेलों का पहला मकसद होना चाहिए। विगत में सुप्रीम कोर्ट ने भी निर्देश दिया था कि विचाराधीन कैदियों की सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों पर रिपोर्ट तैयार की जाए, ताकि रिहाई की शर्तों में ढील दी जा सके। ऐसे में खचाखच भरी जेलों को सुचारू रूप से संचालित करने के लिये विचाराधीन कैदियों को समय रहते न्याय दिलाने की जरूरत है। निस्संदेह, भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में न्यायिक व्यवस्था का चेहरा मानवीय होना चाहिए। यह नजरिया न केवल प्रगतिशील है बल्कि न्यायपूर्ण भी है। ऐसे में गृह मंत्रालय की न्याय दिलाने की पहल का स्वागत किया जाना चाहिए।

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