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तालिबानी मंसूबे

मोरल पुलिसिंग का निर्मम चेहरा
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सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों को ट्रोल करने और धमकी देने की घटनाओं में हाल के दिनों में चिंताजनक स्तर तक तेजी आई है। लेकिन असहमति और विरोध की सीमा यदि जान लेने की हद तक जा पहुंचती है तो किसी सभ्य और लोकतांत्रिक समाज के लिये यह गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए। कहीं न कहीं देश में कठोर नियामक व्यवस्था का न होना भी ऐसी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देता है। हालिया घटनाक्रम में बंठिडा की सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर कंचन कुमारी, जिन्हें कमल कौर भाभी के नाम से भी जाना जाता है, की निर्मम हत्या कर दी गई। यह हत्या हमें इस बात की याद दिलाती है कि कथित नैतिकता के नाम पर मोरल पुलिसिंग, जो कभी ऑनलाइन ट्रोलिंग तक सीमित थी, अब हिंसक आपराधिकता में बदल गई है। इस सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर की हत्या को अंजाम देने वाला कथित मास्टरमाइंड अमृतपाल सिंह मेहरोन, कथित तौर पर कौम दे राखे नामक एक कट्टरपंथी समूह का प्रमुख बताया जाता है। जिसने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर इस सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर द्वारा प्रसारित की गई सामग्री को कथित तौर पर अनैतिक कृत्य के रूप में दर्शाते हुए हत्या को सही ठहराने का प्रयास किया है। इतना ही नहीं, हत्याकांड के बाद संयुक्त अरब अमीरात भागने के बाद हत्या को सही ठहराते हुए, एक वीडियो को जारी करना, संकीर्ण मानसिकता का दुस्साहस ही दर्शाता है। निस्संदेह, यह मामला संकीर्णता के पोषक और कट्टरपंथी तत्वों की सोच से अलग नहीं है। यह उस दुराग्रही सोच की कड़ी का ही हिस्सा है, जो हिंसा और धमकियों के माध्यम से महिलाओं की अभिव्यक्ति पर सोशल पुलिसिंग के जरिये शिकंजा कसने की कोशिश में रहती है। गाहे-बगाहे देश के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग समूहों द्वारा ऐसे कृत्यों को अंजाम दिया जाता रहा है। पिछले दिनों बेंगलुरू में भी एक महिला सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर को केवल उसके पहनावे को अभद्र बताते हुए एसिड हमले की धमकी दी गई। इस धमकी भरे वीडियो के वायरल होने के बाद उस व्यक्ति को उसके नियोक्ता ने नौकरी से निकाल दिया।

यह विडंबना ही है कि कभी ऐसे मामले पाकिस्तान व अफगानिस्तान में महिला सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसरों को लेकर सामने आते थे। अब भारत में कथित सांस्कृतिक शुचिता व नैतिकता के नाम पर ऐसे हमले किए जा रहे हैं। एक अन्य खतरनाक घटना में, एक लोकप्रिय यूट्यूब शो में दिखाई देने वाली एक डिजिटल निर्माता अपूर्वा मुखीजा को बलात्कार और जान से मारने की ऑनलाइन धमकी दी गई। इस पर राष्ट्रीय महिला आयोग ने हस्तक्षेप करते हुए कड़ी कार्रवाई की मांग की। निस्संदेह, इन घटनाक्रमों का पैटर्न स्पष्ट है। सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसरों, विशेष रूप से महिलाओं को कथित सांस्कृतिक मूल्यों के संरक्षण के नाम पर तेजी से निशाना बनाया जा रहा है। सवाल उठता है कि उनके इन मूल्यों को कौन परिभाषित करता है... और किसने उन्हें इस सतर्कता को लागू करने का अधिकार दिया... बठिंडा की दुर्भाग्यपूर्ण घटना की पंजाब महिला आयोग ने निंदा करके सही कदम उठाया है, लेकिन केवल आधिकारिक निंदा पर्याप्त नहीं है। कानून प्रवर्तन एजेंसियों को ऐसे मामलों को सुनियोजित अपराधों के रूप में दर्ज करना चाहिए, जो हमारे सामाजिक ताने-बाने को खतरा पहुंचाते हैं। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों को भी इस दिशा में जिम्मेदारी उठानी चाहिए कि वे समय रहते सोशल मीडिया के दुरुपयोग रोकें व घृणास्पद सामग्री को अपने प्लेटफॉर्म से हटाएं। साथ ही सोशल मीडिया का दुरुपयोग करने वाले तत्वों पर कड़ी नजर रखें। किसी भी लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी एक अपरिहार्य अंग है। निश्चित रूप से अभिव्यक्ति की आजादी की अपनी सीमाएं भी हैं। हालांकि, यह आजादी आलोचना से प्रतिरक्षा नहीं देती, लेकिन यदि आलोचना किसी की मर्यादा को नुकसान पहुंचाने या हत्या की धमकी में तब्दील होने लगे, तो शासन-प्रशासन को सख्त संदेश देना चाहिए। खासकर डिजिटल सतर्कता बढ़ाने की जरूरत है। विशेषकर जब डिजिटल निगरानी शारीरिक हिंसा में बदलने लगे। जिसे किसी कीमत पर सहन नहीं किया जाना चाहिए। यदि ऐसे मामलों में अभी से सख्ती न दिखाई गई तो समाज में ऐसी हिंसक कार्रवाई की घटनाओं को थामना मुश्किल हो जाएगा।

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