मौत का सिरप
कैसी विडंबना है कि जीवन रक्षा के लिये दी जाने वाली दवा मौत का कारण बन जाए। जो दवा की संदिग्ध गुणवत्ता और निर्माता कंपनियों की आपराधिक लापरवाही को ही उजागर करती है। जाहिर है रसायनों की घातकता की मात्रा और गुणवत्ता में कोई खोट इस तरह के हादसों का सबब बना होगा। राजस्थान में कुछ बच्चों की मौत की वजह का संबंध उस सिरप से बताया जा रहा है, जो खांसी ठीक करने के लिये दिया गया। ये हादसे इस बात को रेखांकित करते हैं कि दवा की गुणवत्ता में चूक सामान्य उपचार को कितने जानलेवा जोखिम में बदल सकती है। बताया जाता है कि बच्चों को कथित रूप से मुख्यमंत्री की मुफ्त दवा योजना के तहत सरकारी अस्पतालों में एक जेनेरिक खांसी की सिरप दी गई थी। जबकि इस मामले में जांच चल रही है, यह त्रासदी भारत की फार्मास्यूटिकल निगरानी तंत्र की कोताही ही उजागर करती है। खासकर हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में, जो फार्मा हब के रूप में प्रमुख रूप से उल्लेखित है। महत्वपूर्ण है कि हिमाचल प्रदेश की 655 फार्मास्यूटिकल इकाइयों में से केवल 122 ही जीएमपी यानी गुड मैन्युफैक्चरिंग प्रैक्टिसेज के संशोधित शेड्यूल एम मानकों के तहत अपग्रेड करने के लिये पंजीकृत हैं। इसका मतलब यह है कि अधिकांश फार्मा इकाइयां गुणवत्ता मानकों के अनुपालन को प्रमाणित किए बिना काम कर रही हैं। ये जनस्वास्थ्य के प्रति कितनी गैरजिम्मेदार स्थिति है। जबकि हकीकत यह है कि फार्मास्यूटिकल इकाइयों को अपग्रेड करने की समय सीमा कई बार बढ़ाई गई है। यह नियामक तंत्र की कमजोरियों और छोटी फर्मों में सुरक्षित प्रक्रियाओं में निवेश करने की अनिच्छा को ही उजागर करती है। यह विडंबना ही है कि हमारा तंत्र जन-स्वास्थ्य के खिलवाड़ के प्रति उदासीन बना हुआ है। निस्संदेह, जिन परिवारों ने अपने बच्चों को खोया, उनके लिये यह बहस कोई सांत्वना नहीं है। उन्हें सही मायनों में सांत्वना तभी मिलेगी जब आपराधिक लापरवाही करने वालों को दंडित किया जाएगा।
विडंबना यह है कि अतीत में भी ऐसी कई त्रासदियां हुई हैं, लेकिन हमारे तंत्र ने इससे कोई सबक नहीं सीखा। हालांकि शुक्रवार को केंद्र सरकार ने सभी राज्यों को परामर्श जारी किया है कि दो साल से कम उम्र के बच्चों को खांसी और सर्दी की दवाइयां नहीं दी जाएं। वर्ष 2020 में भी एक ऐसी त्रासदी सामने आई थी, लेकिन कुछ दिन के शोर के बाद मामला ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। विडंबना देखिए कि मृत बच्चों के परिजन आज भी न्याय की प्रतीक्षा में आंसू बहा रहे हैं। हकीकत यह है कि ऐसी मौतों की जिम्मेदारी तय करने में लगातार देरी होती रहती है। ऐसे हादसों को या तो कमतर दर्शाया जाता है या फिर पूरी तरह से अस्वीकार कर दिया जाता है। उल्लेखनीय है कि विगत में भारत को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी ऐसी ही शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा था। भारत की फार्मा कंपनियों के द्वारा तैयार सिरप से गाम्बिया और उज्बेकिस्तान में बच्चों की मौत का लिंक पाए जाने के बाद भारतीय दवाओं पर प्रतिबंध लगाए गए थे। निस्संदेह, ऐसे गैर-जिम्मेदार तरीके से तैयार दवाइयों के चलते भारत की ‘विश्व की फार्मेसी’ के रूप में हासिल प्रतिष्ठा को ही नुकसान पहुंचा है। हमारे नियामक तंत्र को और कितने बच्चों के मरने का इंतजार है.. जरूरी है इससे पहले गुणवत्ता नियंत्रण सिर्फ कागज पर नहीं व्यवहार में लागू करने की जरूरत है। केंद्र सरकार ने दवाइयों के गुणवत्ता मानकों को तय करने के लिए सख्त तरीके जीएमपी अनुपालन हेतु समय-समय पर निरीक्षणों के लिये कदम उठाए हैं। लेकिन प्रवर्तन के स्तर पर अभी भी तमाम खामियां बरकरार हैं। विडंबना यह है कि राज्य नियामकों के पास पर्याप्त संसाधनों का अभाव है। साथ ही अकसर दंड के प्रावधान प्रभावी नहीं होते। यह एक कटु सत्य है कि भारत की फार्मा सफलता की कहानी केवल सस्ती जेनेरिक दवाइयों पर आधारित नहीं रह सकती। हमें इसे विश्वसनीय बनाने की जरूरत है। इसके लिए मजबूत ऑडिट, लापरवाही के लिए आपराधिक जिम्मेदारी तय हो और मामलों में पीड़ितों को तीव्र न्याय मिलना चाहिए। अन्यथा, ऐसी हर त्रासदी जन-विश्वास को कमजोर करती है- जो किसी भी दवा में सबसे महत्वपूर्ण घटक है।