पश्चिमी देश, जिस सोशल मीडिया के गुणगान करते नहीं अघाते थे, अब उन्हें इससे बच्चों में पनपती विकृतियों की हकीकत समझ में आने लगी है। सुगबुगाहट तो ब्रिटेन से लेकर अमेरिका तक प्रतिबंधों को लेकर हो रही है, लेकिन इस दिशा में पहल करने का साहस आस्ट्रेलिया ने सुधारवादियों के दबाव में उठाया है। आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री ने कहा है कि वे बड़ी तकनीकी कंपनियों के अधिकार इसलिए वापस ले रहे हैं ताकि बच्चों के बच्चे होने के अधिकार और माता-पिता की मानसिक शांति के अधिकार की रक्षा हो सके। उन्होंने लोगों को भरोसा दिलाया है कि यह सुधार जिंदगियां बदल देगा। साथ ही आस्ट्रेलिया के बच्चों को बचपन जीने का मौका देगा। आज दुनिया के तमाम देश मंथन कर रहे हैं यदि आस्ट्रेलिया यह पहल कर सकता है तो वे क्यों नहीं कर सकते। इनमें वे तमाम अभिभावक भी शामिल हैं जो अपने बच्चों की आत्महत्या के लिये सोशल मीडिया को जिम्मेदार मानते हैं। उल्लेखनीय है कि आस्ट्रेलिया में यदि सोशल मीडिया मंच 16 साल से कम उम्र के बच्चों के अकाउंट हटाने में असफल रहते हैं, तो उन्हें करीबन पांच करोड़ आस्ट्रेलियाई डॉलर तक का जुर्माना चुकाने के लिये बाध्य होना पड़ सकता है। आस्ट्रेलियाई सरकार क्रिसमस तक मूल्यांकन करेगी कि ये प्रतिबंध कितने कारगर साबित हुए हैं। निस्संदेह, आस्ट्रेलिया की पहल ने पूरी दुनिया में सोशल मीडिया से बच्चों को दूर रखने की मुहिम को नई ऊर्जा दे दी है। कमोवेश, भारत जैसे देश भी सोशल मीडिया की असामाजिकता का दंश झेल रहे हैं। इसमें बच्चों के साथ ऑनलाइन बुलिंग से लेकर ऑनलाइन ठगी तक के तमाम मामले गाहे-बगाहे सामने आते रहते हैं। विडंबना है कि आज सोशल मीडिया पर प्रसारित वयस्कों की सामग्री से बच्चे जाने-अनजाने में परिचित हो रहे हैं। वे समय से पहले वयस्क हो रहे हैं। जिससे समाज में तमाम तरह की सामाजिक विकृतियां पैदा हो रही हैं। निस्संदेह, इससे आने वाले समय में घातक सामाजिक विद्रूपताएं पैदा हो सकती हैं।
दरअसल, बच्चों के लगातार घंटों कथित सोशल मीडिया में सक्रिय रहने से उनमें तमाम शारीरिक व मानसिक विसंगतियां पैदा हो रही हैं। उन्हें संस्कार अब माता-पिता व शिक्षक नहीं, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों का दोहन करने वाले निहित स्वार्थी तत्व दे रहे हैं। जो कि भारतीय जीवन-मूल्यों व संस्कारों से मेल नहीं खाते। आज सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफॉर्मों पर इतनी अश्लील व द्विअर्थी सामग्री का प्रवाह है कि हमारे किशोर आपराधिक प्रवृत्तियों की ओर उन्मुख हो रहे हैं। सोशल मीडिया के घातक प्रभाव के चलते आज बच्चों के नायक बदल गए हैं। उनके आदर्श बदल गए हैं। उनका नजरिया बदल रहा है। सोशल मीडिया के कतिपय मंचों पर अश्लील सामग्री की उपलब्धता ने किशोरों में ब्रह्मचर्य के भारतीय मूल्यों को ताक पर रख दिया है। विडंबना यह है कि घंटों सोशल मीडिया पर बैठे रहने वाले बच्चे शारीरिक सक्रियता से दूर हो रहे हैं। जिससे उनमें मोटापा व अनेक गैर संक्रामक रोग पनप रहे हैं। वे किशोर अवस्था में मधुमेह आदि उन रोगों के शिकार बन रहे हैं जो कभी बड़ी उम्र के लोगों को हुआ करते थे। इस संकट का एक घातक पहलू यह भी है कि मोबाइल पर लगातार सोशल मीडिया के कार्यक्रम स्क्रॉल करने वाले बच्चों की मानसिक एकाग्रता बाधित हो रही है। जाहिर है इसका प्रभाव उनके शैक्षिक प्रदर्शन पर पड़ेगा। एक समय दुनिया के तमाम देशों में जिन भारतीय प्रतिभाओं का डंका बजता था, शायद भविष्य में ऐसा न हो। घंटों सोशल मीडिया पर बिताने वाले छात्रों से उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे अपनी पढ़ाई के लिये पूरी तरह एकाग्र हो सकेंगे। निरंतर कल्पना लोक में विचरण करने वाले बच्चे जब जीवन की हकीकत से जूझते हैं तो टूटने-बिखरने लगते हैं। गाहे-बगाहे आत्महत्या करने वाले किशोरों के डेटा का यदि गंभीरता से विश्लेषण किया जाए तो निश्चित रूप से हम सोशल मीडिया के घातक प्रभाव की हकीकत से रूबरू हो सकते हैं। आस्ट्रेलियाई पहल से सबक लेकर भारत के नीति-नियंताओं को भी इस दिशा में गंभीरता से पहल करनी चाहिए। इस दिशा में थोड़ी भी देरी की देश को भविष्य में बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है।

