वस्तुत: जेल की मूल अवधारण, भटके लोगों को सभ्य समाज के अनुरूप ढालने की ही थी। यही मकसद था कि जेल के एकाकी जीवन में रहकर वे समाज के महत्व को समझ सकें और अपने गलतियों पर आत्ममंथन करें। संगीन अपराधों में लिप्त दुर्दांत अपराधियों को समाज से अलग रखने की तार्किकता हो सकती है। सुधार की अवधारण के क्रम में अब हरियाणा, पंजाब व चंडीगढ़ की जेलों में खामोशी से बदलाव की सकारात्मक पहल की जा रही है। जेलों में ग्यारह औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों यानी आईटीआई की शुरूआत की गई है। यह पहल राष्ट्रीय कौशल विकास मानकों के अनुरूप व्यावसायिक पाठ्यक्रम एनसीवीईटी व एनएसक्यूएफ प्रमाणन के तहत की जा रही है। जिसे कैदियों के जीवन में बड़े बदलाव के प्रयासों के रूप में देखा जा रहा है। इसके अंतर्गत ढाई हजार से ज्यादा कैदियों को वेल्डिंग, प्लंबिंग व टेलरिंग आदि व्यवसायों का प्रशिक्षण दिया जाना है। निश्चय ही इसे देश की जेलों में महत्वाकांक्षी सुधारात्मक पहल के रूप में देखा जा रहा है। दरअसल, इस पहल के मूल में यह सोच है कि अपराध में कमी कठोर कारावास से नहीं बल्कि जेल की चाहरदिवारी से बाहर निकलने पर जीवन नये सिरे संवारने लायक बनाने में सहायक आवश्यक साधन प्रदान करने से संभव होगी। कौशल विकास, परामर्श, व्यावहरिक प्रशिक्षण और सरकारी औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों या एमएसएमई योजनाओं के साथ कैदियों को रिहाई के बाद आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास है। इसे एक सुरक्षित सामाजिक निवेश के रूप में देखा जा रहा है।
निश्चित रूप से यदि कोई कैदी प्रमाणित कौशल, सम्मानजनक पेश की संभावना और बदलावकारी भावना के साथ जेल से बाहर आता है, तो उसके फिर से अपराध करने की संभावना उस व्यक्ति के मुकाबले कम होगी, जो असुरक्षित भविष्य व रोजगार के अभाव में फिर से अपराध की गलियों की तरफ मुड़ सकता है। इस सोच को जमीनी रूप से हकीकत में बदलने के लिए उन बाधाओं को दूर करने का प्रयास करना होगा, जिनका सामना जेल से बाहर आने पर कैदियों को करना पड़ता है। इसमें जेल से बाहर आने पर कैदियों को अपराध के दाग के रूप में भेदभाव का शिकार होने, उन्हें नियोक्ता द्वारा रोजगार देने में हिचकिचाहट दिखाने, अपर्याप्त नौकरियां जैसी बाधाओं का सामना करना पड़ता है। निश्चय ही उनके पुनर्वास के लिये व्यावहारिक प्रयासों की जरूरत होगी। इसके साथ ही उद्योग प्रबंधकों को रिहा हुए कैदियों को नौकरी देने के लिये प्रोत्साहित करना होगा। यह बताते हुए कि यह हमारा एक सामाजिक दायित्व भी है। समाज को भी उनके पुनर्वास को एक सामूहिक जिम्मेदारी के रूप में स्वीकारने के लिये संवेदनशील बनाया जाना होगा। निश्चित रूप से हरियाणा व पंजाब नीतिगत दोरोहे पर खड़े हैं। अब देखना है कि वे इस पहल को एक प्रतीकात्मक सुधार के रूप में देखते हैं या वे इसे एक संरचनात्मक परिवर्तन में बदल सकने में कामयाब होते हैं। यदि ऐसा होता है तो वे न्याय को ही पुनर्परिभाषित करेंगे। निस्संदेह, सच्चा सुधारात्मक न्याय कारावास में नहीं, बल्कि भटके हुए नागरिकों को सम्मान, अवसर और आशा के साथ वापस समाज में लाने में निहित है।

