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अभिव्यक्ति का हक

सोच-समझकर संवेदनशीलता से हो कार्रवाई
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यह विडंबना ही है कि आजादी के पिचहत्तर साल बाद भी शीर्ष अदालत को याद दिलाना पड़ा है कि संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी अनिवार्य हक है। यह भी कि हमारी पुलिस अब तक स्वतंत्र अभिव्यक्ति का मर्म नहीं समझी है और अकसर राजनीतिक दबाव में कार्यवाही कर देती है। कमोबेश यही स्थिति सत्ता पक्ष की भी है कि वो अपनी आलोचना पर तल्ख होकर अभिव्यक्ति की आजादी का अतिक्रमण करने पर उतारू हो जाता है। ऐसे मामलों में पुलिस का भी दायित्व बनता है कि अभिव्यक्ति की सही व्याख्या करे। उसके बाद ही किसी तरह की कार्रवाई करे। निश्चय ही ऐसे मामलों में बेहद संवेदनशीलता की जरूरत होती है। वहीं दूसरी ओर हाल के दिनों में किसी राजनेता के बयान, फिल्मों, साहित्यिक अभिव्यक्ति पर भावनाएं आहत होने के आरोप लगाने का फैशन ही बन गया है। दरअसल, कला व साहित्य में अभिव्यक्ति बिंबों व प्रतीकों के माध्यम से की जाती है। जिसकी सतही व्याख्या करके आनन-फानन में मुकदमे दर्ज कर दिए जाते हैं। भारतीय समाज की तो सदियों से यह खूबसूरती ही रही है कि सभी विचारों व तर्कों का सम्मान किया जाता रहा है। लेकिन हाल के सोशल मीडिया के दौर में कथित भावना आहत होने के आरोप लगाने का रिवाज सा बन गया है। इसके विपरीत सत्ता पक्ष को सुविधाजनक लगने वाले तल्ख विचारों की अभिव्यक्ति का नोटिस नहीं लिया जाता। विडंबना यह है कि पुलिस भी सत्ता पक्ष के दबाव के चलते न्यायसंगत कार्रवाई नहीं कर पाती। यही वजह है कि पिछले दिनों सांसद इमरान प्रतापगढ़ी की कविता पर प्राथमिकी दर्ज होने तथा अश्लील अभिव्यक्ति करने वाले रणवीर इलाहाबादिया के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने मार्गदर्शक टिप्पणियां की। इसमें प्रतापगढ़ी की कविता का मर्म समझे बिना उसके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने की कड़ी आलोचना की गई। साथ ही शीर्ष अदालत ने सरकारी दिशा-निर्देशों में स्वतंत्र अभिव्यक्ति की गरिमा का ध्यान रखने को भी कहा, जिससे किसी के साथ अन्याय न हो सके।

निस्संदेह, अदालत ने स्वतंत्र अभिव्यक्ति के लोकतांत्रिक व संवैधानिक मूल्यों के रूप में अपरिहार्य होने का जिक्र करते हुए दोटूक शब्दों में कहा कि कम से कम आजादी के सात दशक बाद पुलिस को इसकी गरिमा का अहसास होना चाहिए था। कोर्ट ने नसीहत दी कि प्रतापगढ़ी के खिलाफ मामला दर्ज करने से पहले पुलिस को कविता पढ़नी चाहिए थी और उसका वास्तविक अर्थ समझना चाहिए था। कविता इंसाफ और प्रेम को अभिव्यक्त करती थी, न कि हिंसा-दुर्भावना को। कोर्ट ने ऐसी ही टिप्पणी डिजिटल प्लेटफार्म के एक कार्यक्रम में भदेस-अश्लील शब्दावली का प्रयोग करने वाले रणवीर इलाहाबादिया को फिर से कार्यक्रम की अनुमति देते वक्त की है। कोर्ट ने चेताया कि अभिव्यक्ति की आजादी के मायने अश्लील अभिव्यक्ति कदापि नहीं है। कोर्ट ने इलाहाबादिया को सख्त लहजे में चेताया कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर वे नैतिकता व अश्लीलता की सीमाओं के अतिक्रमण करने का दुस्साहस कदापि न करें। अदालत ने सोशल मीडिया मंचों के दुरुपयोग पर गहरी चिंता जताते हुए कहा कि सरकार इस बाबत दिशा-निर्देश जारी करे ताकि सेंसर करने तथा मापदंडों का फर्क स्पष्ट हो सके, जिससे आनन-फानन में विचारों की स्वतंत्रता पर अनावश्यक अंकुश न लगाया जा सके। निस्संदेह, आजकल जब सोशल मीडिया के कतिपय मंचों पर असामाजिक व्यवहार मर्यादाओं की सीमा लांघना आम होता जा रहा है, इनका गाइडलाइन्स के जरिये नियमन जरूरी हो जाता है। लेकिन पुलिस-प्रशासन को जल्दबाजी में कार्रवाई करने के बजाय संवेदनशील ढंग से चीजों का अवलोकन करना चाहिए। यह जानते हुए कि किसी भी लोकतंत्र में नागरिकों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति एक अपरिहार्य शर्त है। वैसे अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर शीर्ष अदालत की यह टिप्पणी पहली बार नहीं आई। स्वतंत्र अभिव्यक्ति को लेकर कई बार मंथन भी होते हैं। लेकिन पुलिस-प्रशासन की कार्रवाई में आवश्यक संजीदगी नजर नहीं आती। यही वजह है कि अदालतों में भावनाओं के आहत होने वाले कथित मामले लगातार आते ही रहते हैं। जबकि अधिकांश मामलों में राजनीतिक व धार्मिक दुराग्रह देखने को मिलते हैं। कई लोग बड़े लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवाकर चर्चा में आने का मौका तलाश लेते हैं। निस्संदेह, पुलिस-प्रशासन की संवेदनशीलता व सत्ता की उदारता से ही अभिव्यक्ति की आजादी की गरिमा रक्षित होगी। इसके अलावा महत्वपूर्ण यह भी है कि जिम्मेदार नागरिक के तौर पर हम अपनी अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा के प्रति सचेत रहें। हमारी उदासीनता समाज में निहित स्वार्थी तत्वों को मनमानी का अवसर देती है। स्वतंत्र अभिव्यक्ति के लिये बनाया गया जनता का दबाव सत्ता व पुलिस-प्रशासन को मनमानी करने से रोकता है।

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