यह सुखद है कि महामारी के दौर में भी देश में 73वें गणतंत्र दिवस को लेकर देशव्यापी उत्साह व्याप्त है। राजपथ पर होने वाले मुख्य समारोह से इतर राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों में होने वाले गणतंत्र दिवस समारोह की तैयारी लंबे समय से जारी रही। मायने कि यह महज सरकारी रस्मी आयोजन नहीं है, बल्कि पूरे देश में स्वत:स्फूर्त उत्साह आयोजन को लेकर व्याप्त है जो हमारे संविधान के लागू होने के 72 साल बाद इसकी सार्थकता को पुष्ट करता है। बताता है कि हमारे लोकतंत्र की जीवंतता इसी संविधान में निहित है। हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में पहचान बना चुके हैं। दुनिया के तमाम लोकतांत्रिक मुल्कों के जनप्रतिनिधि हमारी समृद्ध लोकतांत्रिक परंपराओं से सीख लेने हेतु भारत आते हैं। हमारी चुनाव प्रणाली का अवलोकन करने आते हैं कि कैसे इतने बड़े देश में साल-दर-साल होने वाले चुनावों का पारदर्शी व निष्पक्ष आयोजन संभव होता है। निस्संदेह, दुनिया के बड़े और लिखित संविधानों में शामिल हमारे संविधान को संविधान सभा के विद्वान सदस्यों ने गहन मंथन के बाद अंतिम रूप दिया ताकि राष्ट्रीय संप्रभुता की संरक्षा के साथ नागरिकों के मूलभूत अधिकारों का संरक्षण हो सके। इसमें व्यक्ति के जीने के अधिकार से लेकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संरक्षण भी शामिल है। जहां संविधान हमें मौलिक अधिकारों की समृद्ध विरासत प्रदान करता है, वहीं हमें मौलिक कर्तव्यों का भी बोध कराता है। यह भी कि जब हम अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से पालन करेंगे तो हमारे मौलिक अधिकार स्वत: ही संरक्षित हो जायेंगे। साथ ही यह भी सुनिश्चित करता है कि अब चाहे विधायिका हो, कार्यपालिका हो या न्यायपालिका के प्रतिनिधि, उन्हें आम नागरिक से इतर कोई विशिष्ट लोकतांत्रिक अधिकार हासिल नहीं हैं। यहां तक कि चौथा स्तंभ कहे जानी वाली खबरपालिका को भी नहीं। उनकी अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार भी संविधान में आम आदमी को हासिल अभिव्यक्ति की आजादी के ही अनुरूप है।
बहरहाल, हम जब 73वां गणतंत्र दिवस मनाने जा रहे हैं तो यह हमारे लिये आत्ममंथन का भी मौका है। यह विचार करने का कि देश की विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका उस कसौटी पर खरी उतर पा रही हैं, जिसकी उम्मीद देश के संविधान निर्माताओं ने संविधान को अंतिम रूप देते वक्त की है। यूं तो कोई भी स्तंभ क्षरण की प्रवृत्ति से मुक्त नहीं है लेकिन सवाल यहां क्षरण के स्तर का भी है। देश में व्याप्त राजनीतिक विद्रूपताएं समय की सच्चाई है। धनबल का लोकतंत्र में बढ़ता दखल और राजनीति में दागियों की लगातार बढ़ती संख्या हमारी चंद विफलताओं में शीर्ष पर हैं। दल बदल की राजनीति कानून बनने के बाद भी खत्म होने के बजाय बढ़ी है और दल बदल ने अपने तौर-तरीके बदले हैं। पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले जाति, वर्ग व धर्म की अस्मिताओं की दुहाई देकर जिस तरह निर्लज्ज दल बदल के मामले सामने आये, उससे लोकतांत्रिक शुचिता मैली ही हुई। पांच साल तक राजयोग का सुख भोगना और पांचवें साल में सतारूढ़ दल को गरियाकर पाला बदलना जनप्रतिनिधियों के नैतिक बल के क्षरण का जीवंत उदाहरण ही है। वहीं पांच साल सरकार चलाने के दौरान जनप्रतिनिधियों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का उफान और पांचवें साल में छूट और मुफ्त की घोषणाओं का अम्बार राजनीतिक कार्यशैली में पराभव का ही परिचायक है। जो बताता है कि लोकतंत्र की शुचिता व जनपक्षधरता के मुद्दे तिरोहित हो रहे हैं। सवाल ये है कि आपने पांच साल तक क्या किया? पांचवें साल में इतनी घोषणाओं का क्या उद्देश्य है, जब आपको जनादेश के लिये जनता के दरबार में जाना है? क्या पांच सालों में लोगों की कानून व्यवस्था, शिक्षा व चिकित्सा से जुड़ी मौलिक जरूरतों को पूरा किया गया? क्या जीने के अधिकार के तहत बेरोजगारी संकट को दूर करने की गंभीर कोशिश हुई या फिर अपनी, रिश्तेदारों व राजनीतिक कुनबे की ही गरीबी दूर होती रही। लगातार खर्चीली होती न्याय पाने की प्रक्रिया और अदालतों में करोड़ों मुकदमों का अम्बार भी बताता है कि सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है। खबरपालिका को भी आत्ममंथन करना होगा कि लिखे व कहे गये शब्दों की विश्वसनीयता पर आंच क्यों है। साथ ही सामाजिक समरसता पर चुनौतियों के बादल क्यों हैं।