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विश्वसनीय मतदाता सूची

मददगार होगी बिहार की प्रक्रिया से सीख
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भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। लेकिन एक मजबूत लोकतंत्र के लिये जरूरी है कि उसकी चुनावी प्रक्रिया पारदर्शी और मतदाता सूची विश्वसनीय हो। पिछले दिनों बिहार में विधानसभा चुनाव से कुछ समय पहले मतदाता सूचियों का विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआईआर अभियान चलाया गया। जिसको लेकर विपक्ष ने कड़ा प्रतिवाद किया और अदालत में चुनाव आयोग के फैसले को चुनौती भी दी। बताते हैं कि अब भारतीय चुनाव आयोग देश भर में मतदाता सूचियों का विशेष गहन पुनरीक्षण करने की योजना बना रहा है। हाल ही में बिहार में चल रही इस प्रक्रिया से उपजे राजनीतिक प्रतिवाद को देखते हुए यह एक चुनौतीपूर्ण कार्य होगा। उल्लेखनीय यह भी है कि आसन्न चुनाव वाले राज्य बिहार में एसआईआर की प्रक्रिया न्यायिक जांच के दायरे में हैं। दरअसल, सर्वोच्च न्यायालय ने इस सप्ताह की शुरुआत में चुनाव आयोग को निर्देश दिया था कि आधार कार्ड को मतदाता पहचान पत्र के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए। इसमें दो राय नहीं कि यह सुनिश्चित करना चुनाव आयोग का दायित्व है कि कोई भी पात्र नागरिक अपने मताधिकार के मौलिक हक से वंचित न रहे । उल्लेखनीय है कि बिहार में अंतिम मतदाता सूची इस महीने के अंत तक प्रकाशित होने वाली है। इसमें दो राय नहीं कि देश में पड़ोसी देशों के नागरिकों की बड़े पैमाने पर घुसपैठ गाहे-बगाहे होती रही है। कुछ लोग बेहतर भविष्य की तलाश में गैर-कानूनी तरीके से भारत में घुस आते हैं। फिर कतिपय वोट बैंक के ठेकेदारों, दलालों व भ्रष्ट अधिकारियों की मिलीभगत से जाली कागजात बनवाकर वोट डालने के अधिकारी बन जाते हैं। निस्संदेह, यह गैर-कानूनी है और इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगना ही चाहिए। ऐसे में दो राय नहीं हो सकती है कि मतदाता सूची में त्रुटियों और विसंगतियों को दूर करने करने के लिये तथा अवैध प्रवासियों को बाहर निकालने के लिए अखिल भारतीय स्तर पर मतदाता सूचियों में संशोधन अत्यंत आवश्यक हो जाता है।

निस्संदेह, राष्ट्रीय स्तर पर मतदाता सूचियों में संशोधन अपरिहार्य है। लेकिन इसके साथ ही यह प्रक्रिया निष्पक्ष, पारदर्शी और सरल होनी जरूरी है। जिसमें वास्तविक नागरिकों के हितों तथा चिंताओं को प्राथमिकता दी जाए। इसके अलावा दिक्कत राजनीतिक दलों के मुखर विरोध की भी है। खासकर विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों केरल, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में एसआईआर क्रियान्वयन तो और ज्यादा मुश्किल होगा। हाल के वर्षों में देखा गया है कि सीमावर्ती राज्यों में अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिये राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता विदेशी नागरिकों के जरूरी कागजात बनवाने में गुरेज नहीं करते। उल्लेखनीय है कि उपरोक्त तीनों राज्यों में अगले साल विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। ऐसे में राजनीतिक प्रतिरोध स्वाभाविक ही है। हाल में तमिलनाडु के द्रुमक मंत्री दुरई मुरुगन तल्ख टिप्पणी कर चुके हैं कि बिहार में इस्तेमाल की गई ‘चालें’ तमिलनाडु में काम नहीं आने वाली हैं, क्योंकि उनके राज्य में लोग राजनीतिक रूप से ज्यादा जागरूक हैं। उनके राज्य में लोगों को भ्रमित नहीं किया जा सकता। यह भी हकीकत है कि चुनाव आयोग को विश्वास की कमी को पाटने के लिये सभी हितधारकों को एक साथ लाने और इस धारणा को दृढ़ता से दूर करने की आवश्यकता होगी कि उसकी इस कार्रवाई से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष तौर पर केंद्र के सत्तारूढ़ दल को लाभ नहीं पहुंचता है। निर्विवाद रूप से समान अवसर का अभाव चुनावी लोकतंत्र की पवित्रता और अखंडता को कमजोर कर सकता है। निस्संदेह, बिहार एसआईआर से मिले सबक चुनाव आयोग को अन्य राज्यों में इसी तरह की प्रक्रिया के लिये रोडमैप तैयार करते समय मार्गदर्शन प्रदान करेंगे। यहां यह महत्वपूर्ण है कि सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप ने चुनाव आयोग को आत्मनिरीक्षण और बीच में ही अपनी दिशा बदलने के लिये प्रेरित किया है। यह काफी हद तक एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स जैसे याचिकाकर्ताओं के अथक प्रयासों के कारण ही संभव हो पाया है, जिसके सह-संस्थापक जगदीप छोकर का शुक्रवार को निधन हो गया। छोकर स्वच्छ व पारदर्शी चुनावों के प्रबल समर्थक रहे हैं। निस्संदेह, उनका यह अभियान चुनाव प्रक्रिया को दूषित करने के प्रयासों के विरुद्ध एक मजबूत दीवार की तरह काम करता रहेगा।

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