हाल के दिनों में देश की विभिन्न अदालतों में न्यायिक सुनवाई से अलग होने की घटनाओं में लगातार वृद्धि असहज करने वाली ही है। हालांकि, निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिये सुनवाई से अलग होना एक स्थापित सुरक्षा उपाय है, लेकिन जिस तरह इसका इस्तेमाल और संप्रेषण किया जाता है, उसने कई चिंताजनक प्रश्न तो खड़े किए ही जा सकते हैं। देश के राष्ट्रीय कंपनी विधि अपीलीय न्यायाधिकरण यानी एनसीएलएटी के एक प्रकरण, जहां एक सदस्य ने खुलासा किया कि वह एक मामले से खुद को अलग कर रहा है क्योंकि एक उच्च न्यायिक व्यक्ति ने उसे एक पक्ष का पक्ष लेने के लिये संपर्क किया था, ने इस प्रक्रिया में विश्वास को ठेस पहुंचायी है। हाल ही में, शीर्ष अदालत के न्यायाधीश एमएम सुंदरेश ने बिना कोई कारण बताए दलित-अधिकार वकील सुरेंद्र गाडलिंग की जमानत याचिका पर सुनवाई से खुद को अलग कर लिया था। इससे पहले भी, कर्नाटक उच्च न्यायालय के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश वी कामेश्वर राव ने संस्था से संबंधों का हवाला देते हुए एनएलएसआईयू ट्रांसजेंडर आरक्षण अपील से खुद को अलग कर लिया था। यहां तक कि मुख्य न्यायाधीशों- संजीव खन्ना ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति मामले में और बी.आर.गवई ने एक आंतरिक न्यायिक जांच मामले में खुद को अलग कर लिया था। निस्संदेह, इस तरह की असंगतता पारदर्शिता के बारे में मिले-जुले संकेत देती है। जो जनमानस में इस बाबत नये विमर्श को जन्म देता है। इसमें दो राय नहीं कि इस संबंध में कानून में स्पष्टता की दरकार है। सुनवाई से अलग होने के लिये कोई संहिताबद्ध ढांचा नहीं है।
यहां उल्लेखनीय है कि मई 2025 में, सर्वोच्च न्यायालय ने एक समान नियम बनाने की याचिका को यह कह कर खारिज कर दिया था कि सुनवाई से अलग होना व्यक्तिगत विवेक का मामला है। ऐसे मामलों में न्यायिक स्वतंत्रता ऐसी स्वायत्तता की मांग करती है, वहीं अस्पष्टता जनता के विश्वास को कमजोर करती है। निस्संदेह, जनसाधारण की न्यायिक व्यवस्था में आस्था मजबूत करने के लिये न्याय न केवल किया जाना चाहिए, बल्कि होते हुए भी दिखना चाहिए। उल्लेखनीय है कि वर्तमान में, सुनवाई से अलग होने के मामले केवल न्यायिक मूल्यों के पुनर्कथन और न्यायिक आचरण के बैंगलौर सिद्धांतों जैसी नरम-कानून संहिताओं द्वारा निर्देशित होते हैं। वास्तव में वे कारणों का खुलासा करने का कोई बाध्यकारी दायित्व तय नहीं करते। इसका परिमाण ही असमान व्यवहार है। इस बाबत कुछ न्यायाधीश तो स्पष्टीकरण देते हैं, जबकि कई अन्य ऐसे मामलों में खामोशी धारण कर लेते हैं। निस्संदेह, ऐसी परंपराओं से जन साधारण में अटकलों और न्यायिक प्रक्रिया में देरी को बढ़ावा ही मिलता है। इस दिशा में एक मध्य मार्ग भी संभव है। न्यायालय न्यूनतम प्रकटीकरण मानक अपना सकते हैं। आदेश पत्र पर एक पंक्ति की ‘कारण श्रेणी’ और एक केंद्रीय सुनवाई रजिस्टर की व्यवस्था की जा सकती है। इस प्रकार से कुछ हल्के-फुल्के सुधार न्यायिक स्वतंत्रता की रक्षा ही करेंगे। सही मायनों में खामोशी, खासकर संवेदनशील मामलों में, अब तटस्थ नहीं रही।