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तबाही की बारिश

विलासी विकास के विरुद्ध कुदरत का रौद्र

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उत्तर भारत समेत देश के अन्य भागों में अप्रत्याशित रूप से लगातार होती बारिश ने हा-हाकार मचाया है। बरसात के मौसम में बारिश और जलधाराओं में उफान आना सामान्य बात है। लेकिन इस बार की अतिवृष्टि ने बताया है कि मनुष्य शक्तिशाली होने का भले ही दंभ भरता रहे लेकिन कुदरत के रौद्र के सामने वह बौना ही है। जगह-जगह बादल फटने, नदियों में बाढ़, पानी रोकने में नाकाम बांध और भूस्खलन की घटनाओं ने लोगों में भय पैदा किया है। देश का जनजीवन अस्त-व्यस्त हुआ है। पुलों के टूटने, बस्तियों में नौका चलाने, मकानों के भरभरा कर गिरने व कारों के बहने के वीडियो सोशल मीडिया पर लोगों को दहशत से भर रहे हैं। कारोबार ठप हैं, स्कूल-कालेज बंद कर दिये गये हैं। फिर भी बारिश थमने का नाम नहीं ले रही है। कई राज्यों में रेड, ऑरेंज व येलो अलर्ट जारी हो रहे हैं। हिमाचल प्रदेश में मूसलाधार बारिश ने कोहराम मचाया है। करीब तीन-चार हजार करोड़ रुपये का नुकसान होने का प्राथमिक अनुमान लगाया गया है। हिमाचल में बाढ़, बादल फटने, जलधाराओं में उफान व भूस्खलन में सत्रह लोगों के मरने की खबरें आ रही हैं। जलधाराओं में उफान से नदियों के किनारे स्थित सड़कों, मकानों, होटलों व हाईवे को नुकसान पहुंचना स्वाभाविक है। हिमाचल व उत्तराखंड में सैकड़ों सड़कें तबाह हुई हैं। विद्युत व्यवस्था ठप होने और यातायात बाधित होने की भी खबरें हैं। हिमाचल में रावी, व्यास, सतलुज, चिनाब आदि नदियों में उफान से संकट गहरा हो रहा है। हरियाणा में हथनीकुंड बैराज में जरूरत से ज्यादा पानी जमा होने से करीब दो लाख क्यूसिक पानी छोड़े जाने से दिल्ली पर बाढ़ का खतरा बढ़ गया है। ऐसे में युद्ध स्तर पर बचाव के प्रयास किये जाने की जरूरत है। अभी भी रुक-रुक कर होने वाली बारिश को देखकर अंदाजा लगाया जा रहा है कि आने वाले दिनों में हालात चुनौतीपूर्ण हो सकते हैं।

निस्संदेह, आज पूरी दुनिया में मौसम के चरम से उत्पन्न प्राकृतिक आपदाओं का सिलसिला बढ़ता जा रहा है। मौसम की तल्खी को देखकर लगता है कि प्रकृति के खिलाफ मानव की क्रूरता का कुदरत बदला ले रही है। जलधाराओं के मार्ग में लगातार बढ़ते अतिक्रमण ने नदियों के प्रवाह को आक्रामक बना दिया है। पहाड़ हमारी जरूरत हैं, हमारी प्राणवायु के संरक्षक हैं लेकिन वे सिर्फ इंसानी विलासिता और सैर-सपाटे के स्थान नहीं हैं। वे बड़ी विकास परियोजना व बड़े बांधों का बोझ उठाने लायक भी नहीं हैं। कहा जाता है कि बड़े बांधों के इलाकों में बादल फटने की घटनाएं बढ़ती हैं। इंसान ने विकास व पर्यटन तथा बस्तियों का जितना बोझ पहाड़ों पर लाद दिया है, वो इनकी क्षमता से अधिक है। पहाड़ों में विकास का आधार प्रकृति के साथ सामंजस्य होना चाहिए। वहीं दूसरी ओर देश के महानगर व शहर अनियोजित विकास का त्रास झेल रहे हैं। थोड़ी सी बारिश से बाढ़ जैसे हालात पैदा हो जाते हैं। बारिश के पानी के जो परंपरागत रास्ते थे, उन पर कब्जा करके हमने कंक्रीट के जंगल उगा दिये हैं। दूसरी ओर इस तरह की अतिवृष्टि आधारभूत ढांचे की पोल भी खोलती है। बड़े शहरों में सड़कों में जलभराव, रेलवे लाइन का पानी में डूबना व अंडरपास का जलमग्न होना अनियोजित विकास का ही परिणाम है। बारिश में हमारे आधारभूत ढांचे की गुणवत्ता सामने आ जाती है। जिसके चलते सड़कों के धंसने और ट्रैफिक जाम की घटनाएं बारिश में सामने आती हैं। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि जिस मानसून का हम पलक-पांवड़े बिछा कर स्वागत करते थे, जो बारिश कभी आनंद का प्रतीक होती थी, वह अब डराने क्यों लगी हैं। कहीं न कहीं हमारे नगर नियोजक, प्रशासक, इंजीनियर व नीति नियंता भविष्य की चुनौतियों के मद्देनजर विकास योजनाओं को मूर्त रूप देने में विफल रहे हैं। जाहिर बात है, यदि आधारभूत ढांचे का निर्माण पर्याप्त योजना व दूरदर्शी सोच के अभाव में किया जाएगा, तो अतिवृष्टि से लोगों का मुश्किलों में फंसना स्वाभाविक ही है।

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