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गिरफ्तारी पर सवाल

लोकतांत्रिक प्रतिरोध की भूमिका स्वीकारें
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हाल ही में लेह में हिंसा का घटनाक्रम दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा। लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी तो है लेकिन अराजक होने की अनुमति नहीं दी जा सकती। लेकिन सत्ताधीशों को प्रतिरोध व बेचैनी के निहितार्थों को संवेदनशील ढंग से समझना चाहिए। लद्दाख में जनाक्रोश के कारण समझे जाने चाहिए। कहीं न कहीं लोगों को केंद्रशासित प्रदेश बनने के बाद की आकांक्षाएं फलीभूत होती नजर नहीं आयी। उन्हें लगा कि उनकी भूमि व संसाधन बाहरी दबाव में आ सकते हैं। यही डर है जिसकी वजह से लोग संवैधानिक सुरक्षा की मांग छठी अनुसूची के रूप में करते रहे हैं। पर्यावरणविद् और सामाजिक कार्यकर्ता सोनम वांगचुक लगातार चेताते भी रहे हैं कि अस्मिता की अनदेखी असंतोष को गहरा सकती है। इसको लेकर केंद्र से वांगचुक की अगुवाई में कई दौर की बातचीत भी हुई। कहीं न कहीं अगस्त 2019 में केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद किए वायदों को लेकर छह साल बाद लोगों का सब्र जवाब देने लगा। वांगचुक इस मुद्दे पर लंबे समय से आंदोलन करते रहे हैं। बीते साल मार्च में वह 21 दिनों के अनशन पर बैठे थे। दिल्ली पदयात्रा के दौरान भी उन्होंने अनशन किया था। उनका आंदोलन अहिंसक ही रहा है। केंद्र से कई मुद्दों पर मतैक्य न होने के बावजूद वे बातचीत के हामी रहे हैं। लेकिन हालिया हिंसा के बाद उनकी गिरफ्तारी को लेकर देश में विपक्षी दलों व जन आंदोलनों से जुड़े लोगों ने सवाल उठाये हैं। उनका मानना है कि लद्दाख के लोगों की चिंताओं पर संवेदनशील ढंग से विचार हो।

दरअसल, वांगचुक और लद्दाख के लोगों की चिंता रही है कि यदि शासन में उनकी भागीदारी न रही तो लद्दाख के प्राकृतिक संसाधनों का गलत तरीके से उपयोग हो सकता है। दरअसल, वांगचुक उस छठी अनुसूची के क्रियान्वयन की मांग करते रहे हैं, जिसमें स्वशासन व स्वायत्तता निहित है। पूर्वोत्तर के कई जनजातीय बहुल राज्यों को इसके अंतर्गत संरक्षण मिला हुआ है। सर्वविदित है कि वांगचुक रचनात्मक, सामाजिक अभियानों व पर्यावरण अभियानों से जुड़े रहे हैं। उनके कृत्रिम ग्लेशियर बनाने के प्रयासों की पूरी दुनिया में चर्चा हुई है। उनके कार्यों की लोकप्रियता का आलम ये रहा है कि उनके रचनात्मक विचारों व शिक्षा पद्धति पर आधारित फिल्म ‘थ्री इडियट’ देश में हिट रही। निश्चित ही सख्त धाराओं में उनकी गिरफ्तारी का देश-दुनिया में अच्छा संदेश नहीं जाएगा। इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि उनके आंदोलन व जनाक्रोश का लाभ सियासी रस्साकशी में लगे लोगों ने उठाया हो। वक्त की जरूरत है कि आंदोलन में शामिल संगठनों को बातचीत की मेज पर लाया जाए। जिससे कारगिल की अस्मिता से जुड़े संवेदनशील मुद्दों को संबोधित किया जा सके। लोकतंत्र में मांगों के समर्थन में जनआंदोलन उसकी खूबसूरती भी है। जिसको लेकर सत्ताधीशों को उदारता अपनानी चाहिए। हमारा स्वतंत्रता संग्राम ऐसे आंदोलनों से ही सशक्त हुआ था। हमें ध्यान रखना चाहिए कि लद्दाख महज एक चुनावी क्षेत्र नहीं है, पाक-चीन सीमा से सटा यह इलाका सामरिक व सांस्कृतिक दृष्टि से भी संवदेनशील है। यह बात दिल्ली तक सुनी जानी चाहिए।

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