यह पहली बार नहीं है कि मीडिया के एक वर्ग द्वारा लक्ष्मण रेखा लांघने पर उंगली उठी हो। गाहे-बगाहे एजेंडा केंद्रित बहसों और कंगारू अदालतों को लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को कठघरे में खड़ा किया जाता रहा है। हाल ही में मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमण ने दोहराया कि मीडिया ट्रायल से न्यायपालिका की स्वतंत्रता व कामकाज बाधित होते हैं। साथ ही उन्होंने प्रिंट मीडिया की सराहना की कि वह एक सीमा तक जवाबदेह नजर आता है। एक व्याख्यानमाला के दौरान मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में जवाबदेही नजर नहीं आती। साथ यह भी कि मीडिया ट्रायल से न्यायिक मामलों के बाबत समाज में भ्रामक स्थिति पैदा होती है। वहीं खास मुद्दों को तय करके होने वाली बहसें लोकतंत्र के हित में नहीं कही जा सकतीं। दरअसल, हाल के दिनों राजनीतिक दलों को लेकर प्रतिबद्धता दर्शाने के एक वर्ग के प्रयासों को लेकर बहस होती रही है। टीआरपी के खेल में खबरों को सनसनीखेज बनाने से कई कल्पित मुद्दे तथ्यों को लेकर भ्रामक स्थिति पैदा कर देते हैं। वहीं सांप्रदायिकता को लेकर निर्धारित लक्ष्मण रेखा का अतिक्रमण भी एक गंभीर चुनौती बनी हुई है। हाल ही में एक बहस के दौरान एक टिप्पणी को लेकर देश-विदेश में जो बवाल हुआ उससे देश की गंगा-जमुनी संस्कृति को भी आंच आई। निस्संदेह, मीडिया को राजनीतिक दल विशेष के एजेंडे को हवा देने से परहेज करना चाहिए। यह जानते हुए कि मीडिया का दायित्व नीर-क्षीर विवेक का इस्तेमाल करते हुए वास्तविक तथ्यों को सामने रखना है। यह समझना चाहिए कि संवेदनशील मुद्दों को उछालने से देश की समरसता को आंच आएगी। यह तय है कि जब मीडिया आत्मनिरीक्षण करके स्वनियमन की पहल नहीं करता तो नियामक नियम-कानून बाहर से थोपे जाते हैं। जो मीडिया की आजादी के लिये घातक साबित हो सकते हैं। विडंबना यही है कि मीडिया के उद्योग के रूप में सामने आने से इसकी शुचिता के प्रश्न पार्श्व में चले गये हैं। व्यावसायिक घरानों की गलाकाट स्पर्धा ने उन परंपरागत आदर्शों को तिलांजलि दे दी है, जो पत्रकारिता के आधारभूत तत्व हुआ करते थे।
एक समय था कि पत्रकारिता को ऋषिकर्म की संज्ञा दी जाती थी। लेकिन आजादी के बाद मीडिया में बड़ी पूंजी की भूमिका ने स्थितियों में तेजी से बदलाव किया। जब देश परतंत्र था तो पत्रकारिता का मुख्य ध्येय देश को आजाद कराना था। कालांतर सवाल उठाया गया कि स्वतंत्र भारत में पत्रकारिता का ध्येय क्या होगा। कहा गया कि राजनीतिक आजादी के बाद पत्रकारिता का लक्ष्य सामाजिक व आर्थिक आजादी होना चाहिए। लेकिन पूंजी प्रधान मीडिया ने कालांतर इसे एक व्यवसाय के रूप में विकसित करने में जो जल्दबाजी दिखायी, उसमें पत्रकारिता के परंपरागत मूल्य तिरोहित होते नजर आये। जैसा कि मुख्य न्यायाधीश ने कहा भी कि प्रिंट मीडिया में संपादक नामक संस्था की जवाबदेही नजर आती है। यही वजह है कि मीडिया के तमाम प्रारूप सामने आने के बावजूद देश में प्रिंट मीडिया का विस्तार जारी है। लोग अभी भी खबरों की विश्वसनीयता के लिये प्रिंट मीडिया पर ज्यादा भरोसा करते हैं। वहीं सोशल मीडिया में संपादक नामक संस्था के अभाव के चलते अराजकता का बोलबाला है। जिसके चलते यह निहित स्वार्थी तत्वों व राजनीतिक दलों की राजनीति का माध्यम बनता जा रहा है। जिसकी ओर मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमण ने इशारा भी किया। यहां तक कि उन्होंने सोशल मीडिया में न्यायाधीशों के खिलाफ चलाये जाने वाले अभियानों का जिक्र किया है। उन्होंने कहा कि कंगारू कोर्ट न केवल कानून की परिधि का अतिक्रमण कर रही हैं बल्कि अपने स्तर पर किसी को दोषी ठहराने में गुरेज नहीं करतीं। निस्संदेह ये क्रियाकलाप तथ्यों पर आधारित नहीं हैं। महज भावनाओं के वशीभूत होकर फैसले देने के प्रयास होते हैं। मुख्य न्यायाधीश ने कंगारू अदालतों को गैर कानूनी तथा अपराध की श्रेणी में शामिल किया है। निस्संदेह मीडिया खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी के आलोक में आत्ममंथन करना होगा। उसे तथ्यपरक जानकारी देकर नागरिकों को विवेकशील, धर्मनिरपेक्ष व लोकतांत्रिक मूल्यों का पक्षधर बनाना होगा। जरूरी है कि मीडिया देश के वंचितों,पीड़ितों व समाज के अंतिम व्यक्ति की आवाज बने।