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गुणवत्ता की दवा

जनहित में होगा मानक निर्धारक कानून

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देश में दवाओं की गुणवत्ता के मानक निर्धारण और उनके नकारात्मक प्रभावों पर कारगर नियंत्रण करने की मांग बहुत पुरानी है। जिस देश में एक बड़ी आबादी झोला छाप डॉक्टरों व मेडिकल स्टोर से दवा लेकर इलाज करती हो, वहां दवाओं का मानकीकरण बेहद जरूरी हो जाता है। हाल के दिनों में अफ्रीका और मध्य एशिया के देशों में कफ सीरप से होने वाली कथित मौतों के बाद दवाओं के मानकीकरण की बहस तेज हुई। विश्व स्वास्थ्य संगठन की टिप्पणियों से भी भारतीय दवा उद्योग की विश्वसनीयता पर आंच आई। निस्संदेह इस प्रकरण से भारत की प्रतिष्ठा भी प्रभावित हुई है। लगता है इसके बाद केंद्र सरकार भी हरकत में आई और सुरक्षित दवाओं का उत्पादन सुनिश्चित करने के लिये पहल हुई। बहुत संभव है इसी घटनाक्रम के बाद उच्च मानकों वाली सुरक्षित औषधियों का उत्पादन सुनिश्चित करने की दिशा में कदम बढ़ाया गया हो। संसद के मानसून सत्र में सुरक्षित दवाओं का उत्पादन सुनिश्चित करने वाला एक विधेयक लाना प्रस्तावित है। जिसके जरिये सुनिश्चित किया जा सकेगा कि घटिया दवाओं द्वारा देश -विदेश पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों पर अंकुश लगे। निस्संदेह, इसके मूल में भारत तथा दुनिया के कई देशों में लोगों पर पड़े नकारात्मक प्रभावों के सबक हैं। इसी मकसद से ड्रग्स, मेडिकल डिवाइस और कॉस्मेटिक्स बिल, 2023 लाया जा रहा है। निस्संदेह, इस विधेयक को कानून का रूप देने से पहले इसके विभिन्न पहलुओं पर गंभीरता से मंथन करने की जरूरत होगी। जिससे इस उद्योग से जुड़ी खामियों को दूर किया जा सके। निस्संदेह,देश में भरोसेमंद फार्मास्युटिकल पारिस्थितिकी तंत्र विकसित करने की जरूरत है। जिसके लिये गुणवत्ता का शोध और नियमन भी जरूरी है। यह विधेयक दवाओं, चिकित्सा उपकरणों और सौंदर्य प्रसाधनों के निर्माण, बिक्री, आयात व निर्यात के उच्च मानकों को सुनिश्चित करेगा। जो औषधि और प्रसाधन सामग्री अधिनियम-1940 को निरस्त करेगा और नई जरूरतों के हिसाब से कानून को उपयोगी बनाएगा।

दरअसल, दवाओं की गुणवत्ता के निर्धारण के मार्ग में जहां दवा उद्योग की लॉबी और राजनीतिक घालमेल की बाधाएं हैं, वहीं हमारे नियामक तंत्र में व्याप्त विसंगतियां भी इसके मूल में हैं। ऐसे में कानून बनाते वक्त कई तरह की सावधानियां बरतने की जरूरत होगी। यह भी देखना होगा कि नये कानून से राज्यों के फार्मास्युटिकल उद्योग पर कोई नकारात्मक प्रभाव न पड़े। आज भारत दुनिया में एक बड़े दवा उत्पादक देश के रूप में उभरा है। लेकिन दवाओं की गुणवत्ता का निर्धारण हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। यह देश की साख के लिये भी जरूरी है। आशंकाएं जतायी जाती रही हैं कि नये कानून से दवा निर्माण के लाइसेंस से जुड़ी राज्य दवा नियंत्रकों की शक्तियों में कटौती हो सकती है। यहां उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि औषधि मानक नियंत्रण संगठन को सशक्त बनाने के प्रयास पहले भी दो बार विफल हो चुके हैं। वर्ष 2007 और 2013 में औषधि और प्रसाधन सामग्री (संशोधन) विधेयक विसंगतियों के चलते अंतत: संसद द्वारा वापस ले लिये गये थे। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2021 में जब नया विधेयक बन रहा था तो पंजाब के फार्मा उद्योग ने लाइसेंसिंग और अन्य नियामक प्रक्रियाओं के प्रस्तावित केंद्रीयकरण पर आपत्ति व्यक्त की थी। भविष्य की आशंकाओं से ग्रसित राज्य की करीब दो सौ छोटी फार्मा इकाइयों के प्रतिनिधियों को फिक्र हुई कि उनके पास केंद्रीय एजेंसियों से संपर्क करने अथवा बदले नियमों के अनुरूप बुनियादी ढांचे को उन्नत करने के लिये पर्याप्त वित्तीय संसाधनों की कमी होगी। दरअसल, पंजाब का दवा उद्योग हिमाचल प्रदेश के दवा उद्योग से कमजोर प्रतिस्पर्धा कर रहा था क्योंकि हिमाचल की दवा उत्पादक इकाइयों को निर्धारित समय तक जीएसटी में छूट का लाभ मिल रहा था। जिससे वे बाजार में सस्ती दवा बेचकर पंजाब के उत्पादकों के लिये चुनौती पेश कर रहे थे। निस्संदेह, इस नये कानून के बनने से पहले बीच का रास्ता निकालना भी जरूरी है क्योंकि यदि छोटी इकाइयों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है तो दवा बाजार में जेनेरिक दवाओं का उत्पादन प्रभावित होगा, जो कि गरीब व कमजोर वर्ग की जरूरतों को पूरा करती हैं।

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