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पंजाब में उबाल

सार्थक संवाद से सुलझेंगी किसानों की समस्याएं
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भारतीय किसान यूनियन के एक घटक द्वारा चंडीगढ़ में नये सिरे से आंदोलन शुरू करने की चेतावनी के बाद पुलिस-प्रशासन की सख्ती से बुधवार को सामान्य जीवन व यातायात बुरी तरह से प्रभावित हुआ। चंडीगढ़ से लगते इलाकों में पुलिस के अवरोधों के चलते वाहन घंटों जाम में फंसे रहे। पुलिस आंदोलनकारियों से निबटने के लिये सख्त बनी रही और कई किसान नेताओं को गिरफ्तार किया गया। चंडीगढ़ के अनेक प्रवेश मार्गों को सील किया गया था और भारी संख्या में सुरक्षा बलों को तैनात किया गया था। संयुक्त किसान मोर्चा के आह्वान पर शुरू हुए आंदोलन से उपजे हालात पर आम लोग कहते रहे कि जाम किसानों की तरफ से है या सरकार की तरफ से। दरअसल, पंजाब जो लंबे समय से कृषि क्षेत्र में उदार दृष्टिकोण रखने वाला राज्य रहा है, तंत्र की संवेदनहीनता और शासन की सख्ती के चलते अशांत नजर आता है। भगवंत मान के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी की सरकार, जिसे कभी बदलाव का अग्रदूत कहा जाता था, अब खुद को प्रमुख हितधारकों- किसानों, राजस्व अधिकारियों और नौकरशाही के साथ उलझी हुई पा रही है। ऐसे में सवाल उठता है कि कहां कमी रही कि कृषि क्षेत्र अशांत बना हुआ है। समय रहते किसानों की मांगों को पूरा न किए जाने और कारगर समाधान के लिये परामर्श न मिल पाने से निराश किसान यूनियनों ने नये सिरे से विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया है। जिसकी परिणति ’चंडीगढ़ चलो मार्च’ के रूप में सामने आई है। किसान नेता आरोप लगा रहे हैं कि किसानों की समस्याओं के समाधान पर संवेदनशील रवैया अपनाने के बजाय दमनात्मक कदम उठाये जा रहे हैं। जिसे वे देर रात छापेमारी करके किसान नेताओं की गिरफ्तारी और चंडीगढ़ की सीमाएं सील करने के रूप में देख रहे हैं। किसान नेता आरोप लगा रहे हैं कि मुख्यमंत्री मान ने किसानों की बैठक में से नाटकीय ढंग से वॉकआउट करके अपनी हताशा को ही जाहिर किया है।

वहीं दूसरी ओर मुख्यमंत्री का कहना है कि पंजाब में किसान संगठनों में आंदोलन करने की होड़ मची है। उन्होंने दुख जताते हुए कहा कि पंजाब धरनों का राज्य बनता जा रहा है। उनका कहना है कि सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ जोरदार जंग लड़ रही है। सरकार ने किसानों के हितों की रक्षा के लिये तहसीलदारों, नायब तहसीलदारों सहित पंद्रह राजस्व अधिकारियों को निलंबित किया है। साथ ही अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन न करने वाले कई अन्य अधिकारियों का तबादला किया गया है। जिसके विरोध में राजस्व अधिकारियों ने तल्ख प्रतिक्रिया व्यक्त की। जिसके प्रत्युत्तर में राजस्व अधिकारियों ने सामूहिक अवकाश लेने का विकल्प चुना। जिसके चलते प्रशासनिक काम बुरी तरह प्रभावित हुआ। हालांकि, बुधवार शाम उन्होंने अपनी हड़ताल वापस ले ली है। वैसे एक हकीकत यह भी है कि भले ही सरकार सख्त रवैया अपनाते हुए अनुशासनात्मक कार्रवाई के जरिये अपनी ताकत दिखा सकती है, लेकिन प्रणालीगत भ्रष्टाचार और नौकरशाही की नाराजगी की गहरी गुत्थी अभी भी अनसुलझी है। सवाल उठाया जा रहा है कि सरकार की यह सख्ती क्या हताशा का पर्याय है? वहीं प्रशासन का तर्क है कि लगातार हो रहे विरोध प्रदर्शन से बड़े निवेशक पंजाब में निवेश करने से कतरा रहे हैं। जिससे राज्य का आर्थिक विकास बाधित हो सकता है। लेकिन सवाल यह भी कि कृषि प्रधान राज्य क्या किसानों के हितों की अनदेखी कर सकता है? जिस तरह से लंबे समय से आंदोलनरत किसानों की मांगों के प्रति उदासीनता दर्शायी जा रही है, उससे किसानों की लोकतांत्रिक भागीदारी को लेकर चिंताएं पैदा होती हैं। निश्चित रूप से किसी भी लोकतांत्रिक आंदोलन के दमन से सामाजिक विभाजन और गहरा होता है। दरअसल, पंजाब का संकट सिर्फ हड़ताली अधिकारियों या फिर विरोध करने वाले किसानों को लेकर ही नहीं है। यह असंतोष शासन की रीति-नीतियों पर भी सवाल उठाता है जो आंदोलनकारियों से सहज संवाद की कला को खोता प्रतीत हो रहा है। निश्चित रूप से अपने राज्य के लोगों के साथ सख्ती का व्यवहार तंत्र की नाकामी को ही उजागर करता है। निर्विवाद रूप से निराशाजनक वातावरण को यथाशीघ्र दूर करने के प्रयास किए जाने चाहिए।

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