हिमालयी परिवेश की रक्षा
हाल के दिनों में हिमालयी राज्यों खासकर हिमाचल व उत्तराखंड में अतिवृष्टि और बादल फटने की घटनाओं में जिस तेजी से पुनरावृत्ति हुई है, उसे मौसम के चरम के रूप में देखे जाने की जरूरत है। हालांकि, तात्कालिक जरूरत आपदा प्रभावित जिलों में राहत, बचाव व पुनर्वास के प्रयासों में तेजी लाने की है, लेकिन सबसे बड़ी जरूरत मौसम के चरम के बीच अचानक आती बाढ़ और बार-बार बादल फटने के कारणों को भी समझने की है। हाल ही में, इन्हीं मुद्दों की तरफ हिमाचल के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने भी ध्यान खींचा है। निस्संदेह, इन कारणों की पड़ताल के लिए विषय विशेषज्ञों की सहायता लेना भी जरूरी है। पिछले दिनों हिमाचल में आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की बैठक में मुख्यमंत्री ने उन उपायों की सूची पर चर्चा की, जिन्हें तत्काल लागू करने की आवश्यकता है। इन उपायों में नदियों में अवैज्ञानिक तरीके से मलबा फेंकने की जांच, नियमित मौसम अपडेट देना और नदी-नालों से कम से कम सौ मीटर की दूरी पर घरों का निर्माण करना शामिल है। लेकिन इसके प्रभावी लक्ष्य तभी हासिल किए जा सकते हैं जब इस बाबत किसी ठोस योजना को अमलीजामा पहनाया जाए और साथ ही नीतियों के क्रियान्वयन की समय सीमा निश्चित की जाए। निश्चित रूप से मौजूदा संकट को देखते हुए युद्धस्तर पर काम करने की जरूरत है। वह समय चला गया जब सरसरे आदेश दिये जाते और सिफारिशें की जाती थीं। कानूनों और नियमों की अनदेखी के खिलाफ सभी एजेंसियों को तालमेल बैठाकर इस दिशा में अभियान चलाने की जरूरत है। वनों की अवैध कटाई, अनियोजित निर्माण और अवैज्ञानिक विकास प्रथाओं पर लगाम लगाना बेहद जरूरी है। इसके लिये सरकारी मशीनरी को मिशन मोड में काम करने की जरूरत होगी। जिसके लिये मजबूत राजनीतिक इच्छा शक्ति की जरूरत है। भले ही राज्य की सत्ता में दो दलों का वर्चस्व हो और उनकी विचारधाराओं में टकराव रहा हो, लेकिन इस मुद्दे पर एकजुट होकर संकट का मुकाबला करने की जरूरत है।
निश्चय ही हाल के वर्षों में पहाड़ विरोधी विकास ने हिमालयी राज्यों की अस्मिता को आहत किया है। हिमालयी राज्यों में लोग पहाड़ों के मूल चरित्र में हस्तक्षेप करने वाले विकास की विसंगतियों की कीमत चुके रहे हैं। अब चाहे बड़े बांध हों या फोर लेन सड़के हों। निस्संदेह, विकास हर राज्य की प्राथमिकता है, लेकिन विकास योजनाओं को पहाड़ों की जरूरत के मुताबिक बनाया जाना चाहिए। इन राज्यों में स्थितियां विकट हैं और हालात और खराब होने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। भूस्खलन की लगातार बढ़ती घटनाएं और दरकती सड़कें इसकी बानगी मात्र हैं। कुल मिलाकर पहाड़ों के अस्तित्व पर संकट बढ़ा है। निस्संदेह, मौजूदा रणनीति और नीतियां इस संकट से निबटने में सक्षम नहीं हैं। सत्ता में बैठे लोगों के लिये जरूरी है कि वे मौसम विशेषज्ञों, पर्यावरणविदों और क्षेत्र के अनुभवी लोगों से राय लें। साथ ही तकनीकी समाधानों को वरीयता दी जाए। इसमें दो राय नहीं कि मानव जनित समस्याओं के निदान के लिये मानवीय दृष्टि से संवेदनशील समाधान तलाशने की जरूरत है। निश्चित रूप से इसमें समुदाय के तौर पर एकजुटता के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं रह जाता। समय आ गया है कि हम एक बार फिर से पहाड़ों के अनुरूप जीवन शैली को अपनाएं। पहाड़ हमारी आवश्यकता तो पूरी कर सकते हैं, लेकिन वे इंसान की विलासिता का बोझ सहन करने को तैयार नहीं हैं। निश्चित ही आधुनिकता की आंधी में संयम का जीवन और आवश्यकताओं को सीमित करना कठिन कार्य है, लेकिन बचाव का संभवत: अंतिम उपाय यही है। बहुमंजिला इमारतों को सीमित करना, जल निकासी की समुचित व्यवस्था और निर्माण से पहले जमीन की क्षमता का आकलन करना जरूरी हो जाता है। नदियों में होने वाले अवैध खनन को रोकना भी उतना जरूरी है, जितना जंगलों का कटान रोकना जरूरी है। पहाड़ों को उस हरीतिमा से ढकना होगा जो भूस्खलन व मिट्टी के कटाव को रोकने में सक्षम हो। साथ ही नदियों के स्वाभाविक प्रवाह को बाधित करने वाले कारकों को दूर करने की भी जरूरत है। दरअसल, नदियां अधिक जल प्रवाह होने पर हमेशा अपने विस्तार क्षेत्र को ही तलाशती हैं।