यह विडंबना ही है कि जब देश एक सदी बाद आई कोरोना महामारी से बेहाल था, तब समाज में एक वर्ग, कुछ शिक्षण संस्थाएं व संगठन ऐसे भी थे, जो संकट में मुनाफे के अवसर तलाश रहे थे। चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में बड़ी मानवीय त्रासदी झेलते समाज को न केवल निजी चिकित्सा तंत्र ने उल्टे उस्तरे से मूंडा, बल्कि शिक्षण संस्थाएं व संगठन भी पीछे नहीं रहे। स्वनामधन्य बड़े पब्लिक स्कूलों में अभिभावकों के दोहन की खबरें आम रही हैं। स्कूलों द्वारा भरपूर फीस वसूली गई, मामले सड़कों से लेकर कोर्ट तक उछलते रहे। वहीं दूसरी ओर प्रबंधकों द्वारा पूरी फीस वसूलने के बावजूद शिक्षकों को वाजिब वेतन न दिये जाने के मामले भी प्रकाश में आये। इस कोरोना काल में बस चालकों-परिचालकों व अन्य अस्थायी कर्मियों को भी रोटियों के लाले पड़े रहे। लेकिन जब किसी राज्य सरकार का शिक्षा बोर्ड इस मुनाफे के कारोबार का हिस्सा बने तो चिंता बढ़ जाती है। दरअसल, लोकतांत्रिक सरकारों ने समाज के कमजोर वर्ग के लोगों को गुणवत्तापूर्ण व सस्ती शिक्षा उपलब्ध कराने के लिये राज्य शिक्षा बोर्डों की स्थापना की थीं। कालांतर व्यवस्था की विद्रूपताएं भी इन संस्थाओं को अपनी गिरफ्त में लेने लगीं। हाल ही में पंजाब शिक्षा बोर्ड को लेकर यह तथ्य सामने आया कि कोरोना संकट में परीक्षाएं तो हो न पाईं और बच्चों को पिछले अंकों के आधार पर प्रोन्नत कर दिया गया, लेकिन इसके बावजूद पंजाब शिक्षा बोर्ड ने दसवीं व बारहवीं बोर्ड के छात्रों की परीक्षा के नाम पर तकरीबन एक अरब परीक्षा फीस वसूल ली। उस पर तुर्रा ये कि अब परीक्षा परिणाम घोषित होने के बाद मार्कशीट के लिये आठ सौ रुपये अलग से वसूले जा रहे हैं। यानी देर भी अंधेर भी। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि सरकारी स्कूलों में कमजोर वर्गों के बच्चे अधिक पढ़ने आते हैं। सरकार भी समाज कल्याण की दृष्टि से ऐसा करती है।
दरअसल, सवाल सिर्फ पंजाब शिक्षा बोर्ड का ही नहीं है, अगर इस दिशा में गहन पड़ताल की जाएगी तो कोरोना काल के दौरान देश में शिक्षा की दुकानों द्वारा दोहन का सच सामने आ जायेगा। ऐसे वक्त में जब देश में कोरोना संकट के बाद लगे लॉकडाउन के बाद अस्सी फीसदी लोगों की आय का संकुचन हुआ, तो शिक्षण व नियामक संस्थाओं को फीस के मामले में उदार रवैया अपनाना चाहिए था। करोड़ों लोगों के रोजगार छिने, लाखों लोगों के वेतन में कटौती की गई, लेकिन नामी-गिरामी शिक्षण संस्थाएं फीस कम करने के लिये लगातार ना-नुकर करती रही हैं। समाज में व्याप्त यह संवेदनहीनता दुर्भाग्यपूर्ण ही है, जो मुश्किल में फंसे लोगों से मुनाफा कमाने की सोच रखती है। दरअसल, पूरे देश में शिक्षण संस्थाओं व बोर्डों की मनमानी पर अंकुश लगाने के लिये केंद्रीय नियामक संस्था की स्थापना होनी चाहिए। बार-बार राज्यों में यह तथ्य सामने आता है कि जिन विभागों की जिम्मेदारी अनियमितताओं को रोकने की है, वे ही निजी स्वार्थों को देखते हुए छात्रों के हितों की अनदेखी कर देते हैं। ऐसे मामलों में तुरंत कार्रवाई और दोषियों को मिलने वाली तुरंत सजा से ही समाज में कुछ स्थिति बदल सकती है। इसके लिये सरकारी विभागों की जिम्मेदार भूमिका तय करने और समाज को जागरूक होने की जरूरत है। बहुत संभव है कि पंजाब शिक्षा बोर्ड के मामले में शिक्षा के प्रति संवेदनशील दृष्टिकोण दिखाने वाली नवनिर्वाचित आप सरकार संज्ञान ले और जिन छात्रों की परीक्षा नहीं हुई उनके साथ न्याय करे। साथ ही मार्कशीट देने के लिये ली जा रही रकम को न्यायसंगत बनाया जाये, क्योंकि समाज के कमजोर वर्गों के बच्चों पर यह फीस एक नये बोझ की तरह ही है। हालांकि, पंजाब शिक्षा बोर्ड के अधिकारी दावा कर रहे हैं कि बोर्ड ने परीक्षाओं की तैयारी कर ली थी और प्रश्नपत्र भी छप चुके थे, लेकिन इसके बावजूद छात्रों का काफी पैसा बचता है, जिसे लौटाना ही न्यायसंगत है। इस मामले में राज्य सरकार व न्यायिक सक्रियता की उम्मीद की जा रही है।