कहना कठिन है कि संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में अगले साल भारत में दुनिया की सबसे बड़ी आबादी होने का आकलन खुशखबरी है या चिंता की बात। देश में दुनिया की सबसे बड़ी युवा आबादी होना सौभाग्य है, मगर अगर नीति-नियंता हर हाथ को काम न दे पायें तो यह गंभीर चुनौती है। कोरोना संकट के बाद बढ़ी बेतहाशा बेरोजगारी व महंगाई चिंता का सबब है। जब हम कहते हैं कि भारत आबादी के मामले में चीन को पछाड़ देगा तो हमें उसके क्षेत्रफल, उपलब्ध संसाधन, रोजगार की स्थिति तथा नागरिकों के जीवन में निर्धारित अनुशासन का भी मूल्यांकन करना चाहिए। हमें इस बात को लेकर चिंतित होना चाहिए कि संयुक्त राष्ट्र की जारी हालिया रिपोर्ट में वर्ष 2023 में भारत के आबादी में नंबर एक होने की बात कही जा रही है, जबकि पूर्व में यह आकलन था कि यह स्थिति 2027 में आयेगी। यानी चार साल पहले ही उस स्तर पर आबादी पहुंच गई? जो बताता है कि हम जनसंख्या नियोजन को लेकर उदार नीति अपना रहे हैं और परिवार नियोजन के प्रयास मन लगाकर नहीं हुए हैं। यह विडंबना है कि कुछ वर्गों की तरफ से राजनीतिक लक्ष्यों हेतु तथा धार्मिक वर्जनाओं की दुहाई देकर जनसंख्या स्थिरीकरण के प्रयासों को पलीता लगाया जा रहा है। यह नहीं सोचा जा रहा है कि जहां देश के पास विश्व का महज ढाई फीसदी से कम भू-भाग है, वहीं करीब 18 फीसदी के लगभग जनसंख्या का बोझ होगा। तो ऐसे में हर हाथ को काम और हर पेट को रोटी देना संभव हो पाएगा? यह पूरी दुनिया के लिये भी चुनौती है कि इस साल के अंतिम महीनों में विश्व की आबादी आठ अरब पार कर जायेगी। यानी पिछले एक दशक में एक अरब आबादी बढ़ चुकी है। वहीं चिंता की बात यह है कि आने वाले दो दशकों में पूरी दुनिया की आबादी में दो अरब लोग और जुड़ जायेंगे।
यह विडंबना ही है कि गरीब व विकासशील मुल्कों में ही ज्यादा आबादी है। एशिया में पूरी दुनिया की साठ फीसदी के करीब आबादी रहती है जो मानव संसाधनों के विकास पर होने वाले खर्च की हकीकत बताता है। वहीं दुनिया के संपन्न देशों में जनसंख्या नियोजन व स्थिरीकरण के लक्ष्य हासिल किये जा चुके हैं। बहरहाल, भारत जैसे देश में दुनिया की सर्वाधिक आबादी का होना आने वाले कल की गंभीर चुनौतियों की ओर इशारा है। विचारक माल्थस ने चेताया था कि आने वाले समय में दुनिया में गंभीर खाद्यान्न संकट पैदा होगा क्योंकि जनसंख्या बीज गणितीय अनुपात से बढ़ती है और खाद्यान्न अंकगणितीय अनुपात से। जिससे खाने वाले मुंह व अनाज की उपलब्धता में बड़ा अंतर रह जाता है। माल्थस तो यहां तक टिप्पणी करता है कि अनियंत्रित जनसंख्या को नियंत्रण में लाने के लिये प्रकृति कदम उठाती है। बहरहाल, हमें जनसंख्या स्थिरीकरण व परिवार नियोजन की तरफ कदम बढ़ाने होंगे। जैसा कि चीन ने 1979 में संतान नीति को कड़ाई से लागू किया। हालांकि, कालांतर चीन के उत्पादन केंद्र बनने व रोजगार के अवसरों में अप्रत्याशित वृद्धि के बाद सख्त नीति में ढील देने पड़ी। लेकिन चीन ने अपने लक्ष्य को हासिल कर लिया है। इसके बावजूद चीन में आबादी को लेकर संस्कृति व सोच के स्तर पर बदलाव आ चुका है। जबकि चीन का क्षेत्रफल, संसाधन व रोजगार भारत के मुकाबले काफी ज्यादा है। फिर साम्यवादी व्यवस्था का सख्त अनुशासन भी चीन की अतिरिक्त ताकत है। भारत को इस चुनौती के मुकाबले के लिये मानव संसाधनों व सेहत सेवाओं के संवर्धन पर ध्यान देना होगा। आधुनिक तकनीक के बजाय श्रम प्रधान उद्योग तथा ग्रामीण विकास की संस्कृति पर बल देना होगा। पहले ही जनसंख्या के बोझ से चरमराती शहरी सेवाओं को दुरुस्त रखने के लिये जरूरी है कि उद्योग-धंधों का विकेंद्रीयकरण करके उन्हें ग्रामीण इलाकों में केंद्रित किया जाये। सेवा क्षेत्र में प्रतिभा निर्यात की रणनीति भी कारगर हो सकती है। हमें रोटी-कपड़ा-मकान, शिक्षा व सेहत जैसी बुनियादी जरूरतों को प्राथमिकता देनी होगी। कोशिश हो कि आबादी को बोझ के बजाय मजबूत संसाधन के रूप में विकसित करें।