गत शनिवार अफगानिस्तान की राजधानी काबुल स्थित एक प्रतिष्ठित गुरुद्वारे पर हुए चरमपंथी हमले को भले ही तालिबान पुलिस की तत्पर कार्रवाई से विफल बना दिया, लेकिन इसे एक गंभीर चुनौती के रूप में लिया जाना चाहिए। यह हमला ऐसे वक्त में हुआ जब इस माह की शुरुआत में ही भारतीय विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव जे.पी. सिंह एक शिष्टमंडल के साथ अफगानिस्तान की राजधानी काबुल गये थे। यह बीते साल अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार बनने के बाद किसी भारतीय सरकारी शिष्टमंडल का पहला दौरा था। दल ने विदेश मंत्री आमिर खान मुतक्की से राजनयिक संबंधों व मानवीय मदद पर चर्चा की थी। बहरहाल, जैसे कि उम्मीद थी इस्लामिक स्टेट ने इस हमले की जिम्मेदारी ली और इसे हाल में भाजपा प्रवक्ता द्वारा मुस्लिमों के आराध्य को लेकर की गई टिप्पणी का बदला बताया गया। निस्संदेह, अफगानिस्तान में तख्ता पलट के बाद उपजी असुरक्षा के माहौल में रह रहे गिने-चुने हिंदू-सिखों के लिये यह गंभीर स्थिति है। स्थिति इतनी विकट है कि 1970 के दशक में जहां अफगानिस्तान में एक लाख सिख रहा करते थे, उनकी संख्या डेढ़ सौ के करीब बतायी गई। अब वे भी कह रहे हैं कि वहां रहने लायक हालात नहीं हैं, हम भी वीजा न मिलने के कारण यहां फंसे हुए हैं। दरअसल, आईएस के इस हमले के पीछे गहरे निहितार्थ हैं। वह विवादास्पद टिप्पणी से उपजे वैश्विक इस्लामिक आक्रोश को भुनाने की फिराक में है। वह दिखाने का प्रयास कर रहा है कि अफगानिस्तान में तालिबान और अलकायदा ने भले ही विवादास्पद टिप्पणियों के खिलाफ निंदा की हो लेकिन बदला लेने में आईएस ही आगे रहा है। वहीं दूसरी ओर अफगानिस्तान की सत्ता में काबिज तालिबान की सत्ता को चुनौती देना भी इस हमले का मकसद रहा है। दरअसल वे तालिबान के उस दावे को खारिज करना चाहते हैं कि अफगानिस्तान में शांति व स्थायित्व लौट रहा है। कुल मिलाकर अफगानिस्तान में सत्ता में वर्चस्व और अतिवादी मुस्लिम सोच का प्रतिनिधित्व करने की दावेदारी की सोच भी हमले के मूल में रही है।
इसके अलावा इस हमले के जरिये आईएस अपने विरोधी इस्लामिक अतिवादी संगठन अल-कायदा को भी ललकार रहा है कि मुस्लिमों के आराध्य के खिलाफ की टिप्पणियों पर उसने सिर्फ बयानबाजी की है, हमला करने का साहस आईएस ने ही जुटाया है। इससे पहले अलकायदा विवादित टिप्पणियों को लेकर तल्ख व तेज प्रतिक्रिया दे चुका था और भारत में हमले करने वालों को समर्थन देने में आगे रहा था। इस हमले के बाद इस्लामिक स्टेट खुरासान ने कहा कि ऐसा हमला होना चाहिए था, विवादित टिप्पणियों का यही जवाब भी है। वह बताना चाहता था कि कुछ अतिवादी संगठनों ने विवादित बयानों की आलोचना में तो तत्परता दिखाई, लेकिन कोई सीधी कार्रवाई नहीं की। बाकायदा आईएस की न्यूज एजेंसी अमक ने हमले की खबर ब्रेक की और इसकी जिम्मेदारी ली तथा बड़ी संख्या में हिंदू-सिखों को मारने का दावा किया। जिसकी संख्या को अफगानिस्तान के मुख्य मीडिया ने नकारा और बताया कि हमले में तीन ही लोग मारे गये। बाकायदा आईएस ने भारतीय अधिकारी के अफगानिस्तान दौरे का भी जिक्र किया। उल्लेखनीय है कि आईएस विगत में सिखों पर हमले करता रहा है। वर्ष 2018 और 2020 में सिखों पर आत्मघाती दलों ने हमले किये थे। तब दलील दी गई थी कि कश्मीर की घटनाओं की प्रतिक्रिया स्वरूप उसने ये हमले किये हैं। यूं तो आईएस भारत में बड़े हमले करने में नाकाम रहा था लेकिन कश्मीर में कुछ हमलों को अंजाम दिया था। कहीं न कहीं काबुल के गुरुद्वारे में किये गये हमले के मूल में अफगानिस्तान में अल-कायदा और आईएस की वर्तमान वर्चस्व की लड़ाई भी निहित है। आईएस खुद को मुस्लिमों का सबसे बड़ा रक्षक दिखाने की कवायद में जुटा है जिससे वह जिहादियों में अपनी धाक जमा सके और जिहादियों की नई भर्ती कर सके।