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ऑपरेशन असहिष्णुता

प्रोफेसर की गिरफ्तारी अकादमिक आजादी पर आंच
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किसी भी लोकतंत्र की खूबसूरती इस बात में है कि वहां सभी तरह की वैचारिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान किया जाए। बशर्ते अभिव्यक्ति समाज में विभाजन की कारक और राष्ट्र के हितों के विरुद्ध न हो। हरियाणा में अशोका विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद की सोशल मीडिया पोस्ट पर उठे विवाद के बाद की गई गिरफ्तारी ने कई सवालों को जन्म दिया है। दरअसल, प्रोफेसर अली खान ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के कुछ पहलुओं को लेकर सवाल उठाए थे। यह घटनाक्रम हमें याद दिलाता है कि देश में असहमति के विचारों को कैसे देश के विरुद्ध दर्शाया जा रहा है। हरियाणा पुलिस ने अपनी कार्रवाई के पक्ष में दलील दी है कि प्रोफेसर की टिप्पणी भारत की एकता को खतरे में डालने वाली है। निस्संदेह, यह घटना विचार और स्वतंत्र अभिव्यक्ति को संदिग्ध रूप में दर्शाने का उपक्रम नजर आता है। यह स्पष्ट है कि प्रोफेसर महमूदाबाद की आवाज कोई सतही टिप्पणी नहीं है। वे एक सम्मानित अकादमिक और सार्वजनिक विमर्श में सक्रिय रहने वाले बुद्धिजीवी हैं। जिन्हें भारत के सामाजिक और राजनीतिक ताने-बाने के साथ विचारशील जुड़ाव के लिये जाना जाता है। उनकी टिप्पणी भले ही कितनी भी आलोचनात्मक क्यों न हो, उसे राष्ट्रीय एकता के लिये खतरे के रूप में चित्रित करना एक अतिशयोक्ति ही कही जाएगी। निश्चित रूप से इस मामले में पुलिस की कार्रवाई एक ऐसी अस्वीकार्य मिसाल है, जो कालांतर लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी का अतिक्रमण ही करती है। प्राचीन काल से ही हमारे विश्वविद्यालय रचनात्मक बहस के लिये उपयुक्त स्थान के रूप में जाने जाते रहे हैं। जहां राज्य की निगरानी के जरिये हस्तक्षेप की गुंजाइश नहीं होती थी। सवाल इस घटनाक्रम के समय व संदर्भ को लेकर भी उठाए जा रहे हैं। निश्चित रूप से ‘ऑपरेशन सिंदूर’, एक ऐसा सैन्य अभियान था, जिसे व्यापक सार्वजनिक जनसमर्थन और मीडिया कवरेज मिली। सही मायने में एक परिपक्व लोकतंत्र में किसी भी आलोचना को सहज भाव से लिया जाना चाहिए।

निस्संदेह, स्वतंत्र वैचारिक अभिव्यक्ति पर सवाल खड़े करना और उसे दंडात्मक कार्रवाई के जरिये दबाने का प्रयास अस्वीकार्य ही है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि अकादमिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी किसी सत्ताधारी व्यवस्था की मर्जी से दिए गए विशेषाधिकार नहीं है, ये संवैधानिक गारंटी हैं। यह सुखद ही है कि देश की सर्वोच्च अदालत ने प्रोफेसर महमूदाबाद की याचिका पर सुनवाई करने के लिये सहमति दे दी है। जो इस मामले में एक उम्मीद की किरण कही जा सकती है। लेकिन सार्वजनिक जीवन में अपमान के बाद राहत के लिये कानून प्रवर्तन एजेंसियों से जूझना व्यक्ति के लिये कष्टदायक ही है। यह सही समय है कि हमारी संस्थाएं देशभक्ति को अंध आज्ञाकारिता के रूप में परिभाषित न करें। सही मायनों में सच्ची देशभक्ति सवाल करने, विचार करने और यहां तक कि असहमति जताने की क्षमता में निहित है। जिसको लेकर सलाखों के पीछे डालने का भय नहीं होना चाहिए। सही मायनों में एक ट्वीट पर एक प्रोफेसर की गिरफ्तारी राष्ट्रीय सुरक्षा की रक्षा नहीं करती बल्कि यह केवल राष्ट्रीय असुरक्षा को ही उजागर करती है। यही वजह है कि देश की कई चर्चित हस्तियों व राजनेताओं ने प्रोफेसर अली के समर्थन में आवाज उठाई है। उन्होंने उन आक्षेपों को खारिज किया है जिनमें उनकी पोस्ट को महिला विरोधी और धार्मिक द्वेष फैलाने वाला बताया गया। उन्होंने सवाल उठाये हैं कि उनकी टिप्पणी कैसे देश की एकता, अखंडता और संप्रभुता के लिये चुनौती है। वे मानते हैं कि पहले मध्य प्रदेश के उस मंत्री के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए थी, जिसने वास्तव में कर्नल सोफिया के विरुद्ध नकारात्मक टिप्पणी की थी। उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई न होना कई सवालों को जन्म देता है। लेखक व कुछ प्रोफेसर हरियाणा पुलिस की तत्काल कार्रवाई पर भी सवाल उठा रहे हैं। कुछ बुद्धिजीवियों का मानना है कि असली लोकतंत्र वही होता है जहां स्वतंत्र अभिव्यक्ति के रास्ते बंद नहीं होते। बुद्धिजीवी, शिक्षा व लेखक बिरादरी के लोग अशोका यूनिवर्सिटी से आग्रह कर रहे हैं कि वह अपने प्रोफेसर को संबल दे।

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