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नई श्रम संहिताएं

लेकिन सुधारों का क्रियान्वयन बड़ी चुनौती

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इसमें दो राय नहीं कि नई श्रम संहिताएं लागू करना देश के श्रम परिदृश्य में एक नये दौर में प्रवेश करने जैसा है। केंद्र सरकार ने चारों श्रम संहिताओं मसलन वेतन,औद्योगिक संबंध, सामाजिक सुरक्षा और व्यावसायिक सुरक्षा एवं कार्य स्थितियों को अधिसूचित किया है। केंद्र सरकार 29 केंद्रीय कानूनों की जगह चार संहिताओं को लाने वाले इस कदम को ऐतिहासिक सुधार के तौर पर पेश कर रही है। दावा किया जा रहा है कि इससे अनुपालन सरल बनेगा, सामाजिक सुरक्षा का विस्तार होगा और ये कदम श्रमिकों की सुरक्षा को मजबूती देगा। इस पहल में कर्मचारियों को समय पर वेतन, औपचारिक नियुक्ति पत्र देने, न्यूनतम वेतन की गारंटी और वार्षिक स्वास्थ्य जांच का वायदा किया गया है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि श्रम सुधारों के कई प्रावधान, लंबे समय से अपेक्षित प्रगति का संकेत देते हैं। सभी क्षेत्रों में न्यूनतम वेतन का सार्वभौमिक वैधानिक अधिकार, अनिवार्य लिखित नौकरी अनुबंध, निश्चित अवधि के कर्मचारियों के लिये बेहतर ग्रेच्युटी तक पहुंच और स्वास्थ्य व सुरक्षा पर स्पष्ट मानदंड, औपचारिक प्रावधानों और पारदर्शिता की दिशा में बदलाव को रेखांकित करते हैं। निश्चित रूप से सामाजिक-सुरक्षा ढांचे के भीतर गिग और प्लेटफॉर्म श्रमिकों को मान्यता देना शायद सबसे बड़ा संरचनात्मक परिवर्तन माना जा सकता है। सही मायनों में यह बदलाव लंबे से समय से वैधानिक दायरे से बाहर रह रहे एक बड़े वर्ग को मान्यता प्रदान करता है। निश्चय ही, ये देश के लाखों कामगारों को सुरक्षा कवच प्रदान करेगा।

वहीं दूसरी ओर ये संहिताएं महिलाओं के लिये भी रोजगार की समान परिस्थितियां अनिवार्य बनाती हैं। इस प्रयास से महिलाओं की कार्यबल में भागीदारी का दायरा बढ़ेगा। हालांकि, इन प्रयासों से जुड़ी कुछ जरूरी चेतावनियां भी सामने आ रही हैं। उदाहरण के लिये औद्योगिक संबंध संहिता, छंटनी और संस्थान को बंद करने के लिये सरकारी मंजूरी की सीमा को सौ कामगारों से बढ़ाकर तीन सौ कर देती है। इन नई श्रम संहिताओं के लागू होने पर उद्योग जगत जहां इस बदलाव को लचीला बताकर स्वागत कर रहा है, वहीं श्रम संगठनों को चिंता है कि इससे रोजगार की सुरक्षा कम होगी। ऐसी ही कई आशंकाओं को लेकर देश की कई केंद्रीय ट्रेड यूनियनों ने विरोध प्रदर्शन की घोषणा की है। उनका तर्क है कि नई व्यवस्था कामगारों के सामूहिक दबाव से बातचीत की गुंजाइश को कमजोर करती है। साथ ही सत्ता का झुकाव नियोक्ताओं की ओर नजर आता है। वहीं दूसरी ओर नये प्रावधानों का क्रियान्यवन राज्यों पर निर्भर करेगा। जिन्हें इसके बाबत पूरक नियम बनाने होंगे। राज्यों द्वारा असमान रूप से प्रावधान अपनाने से एकीकृत रूप से राष्ट्रीय व्यवस्था के निर्माण में बाधा उत्पन्न होगी। वहीं दूसरी ओर इन संहिताओं की सफलता प्रवर्तन की ईमानदारी पर निर्भर करेगी। यह प्रयास तभी प्रभावी होगा जब कार्य परिस्थितियों का पारदर्शी निरीक्षण, सकारात्मक परिणाम देने वाले शिकायत तंत्र और अनौपचारिक कार्यबल तक सही मायने में पहुंचने वाली सामाजिक सुरक्षा योजनाएं सिरे चढ़ सकेंगी। निस्संदेह, देश ने अपनी श्रम नियमावली को फिर से लिखा है। लेकिन जमीनी स्तर पर ठोस बदलाव आने में अभी कुछ वक्त लगेगा।

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