ऐसे वक्त में जब अमेरिका ने निरंकुश टैरिफ थोपने व भारत के हितों पर कुठाराघात की नीति अख्तियार की हुई है, ब्रिटेन के साथ रक्षा व कारोबारी रिश्तों में नई शुरुआत उम्मीद जगाने वाली है। दोनों देशों के बीच मुक्त व्यापार समझौते का सिरे चढ़ना दोनों पक्षों के हित में बताया जा रहा है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री कीर स्टारमर की भारत की पहली आधिकारिक यात्रा को नई दिल्ली और लंदन के संबंधों में एक नये सिरे से बदलाव का प्रतीक बताया जा रहा है। मुंबई में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उनकी मुलाकात के प्रतीकात्मक और व्यावहारिकता की दृष्टि से गहरे निहितार्थ हैं। इस यात्रा के दौरान महत्वपूर्ण समझौते इस यात्रा के महत्व को रेखांकित करते हैं। जिसमें 468 मिलियन डॉलर का मिसाइल सौदा, मुक्त व्यापार समझौते यानी एफटीए के शीघ्र क्रियान्वयन के लिये प्रतिबद्धता तथा भारत में नौ ब्रिटिश विश्वविद्यालय खोलने पर सहमत होना शामिल है। जैसा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा भी है कि इस रिश्ते में ‘एक नई ऊर्जा है’, जो व्यापार, प्रौद्योगिकी और प्रतिभा का समन्वय चाहती है। हालांकि, मुक्त व्यापार समझौते का मूल्यांकन, इसके प्रतीकात्मक मूल्य के बजाय इसके वास्तविक आर्थिक प्रभाव के आधार पर किया जाना चाहिए। मुक्त व्यापार समझौते के क्रियान्वयन के बाद भारत के लिये ब्रिटिश बाजार तक भारतीय कपड़ों, दवा और सेवाओं, विशेष रूप से आईटी और फिनटेक के निर्यात को बढ़ावा मिल सकता है। लेकिन वहीं दूसरी ओर मुक्त व्यापार समझौते के क्रियान्वयन को लेकर कुछ चिंताएं भी मौजूद हैं। मसलन छोटे और मध्यम उद्यमों के सामने सस्ते ब्रिटिश आयातों से कमजोर होने या नियामक विषमताओं का सामना करने की आशंका बनी हुई है। इसमें दो राय नहीं है कि एफटीए के फलस्वरूप, ब्रेक्सिट के बाद ब्रिटेन के लिये, भारत एक अनिश्चित वैश्विक अर्थव्यवस्था के बीच विकास का एक लाभप्रद अवसर और एक स्थिर अर्थव्यवस्था वाला मजबूत साझेदार का मिलना है। लेकिन इसके बावजूद मुक्त व्यापार समझौते के क्रियान्वयन में भारतीय हितों की रक्षा के लिये सतर्क पहल की जरूरत भी महसूस की जा रही है।
वैसे यह भी तथ्य है कि अनुसंधान, डिजिटल नवाचार और स्वच्छ ऊर्जा में पारस्परिक निवेश की कसौटी पर ही दोनों देशों के रिश्तों की असली परीक्षा होगी। लेकिन यह भी एक हकीकत है कि भारतीय पेशेवरों या छात्रों के लिए वीजा मानदंडों में ढील देने से स्टारमर का स्पष्ट इनकार करना इस बहुप्रचारित साझेदारी की सार्थकता को लेकर सवाल पैदा कर सकता है। यह विडंबना ही है कि ब्रिटेन कुछ मुद्दों को लेकर दोहरा मापदंड अपना रहा है। एक ओर ब्रिटेन जहां भारतीय बाजार में अपनी पहुंच बनाना और साथ ही तकनीकी सहयोग तो पाना चाहता है, लेकिन वहीं वह श्रम की गतिशीलता को लेकर सतर्क बना हुआ है, जो कि ब्रिटेन के साथ भारत के आर्थिक और शैक्षिक जुड़ाव का एक केंद्रीय मुद्दा बना रहा है। इस बात में दो राय नहीं हो सकती है कि यदि प्रतिभाओं का आदान-प्रदान एकतरफा ही रहेगा, तो पारस्परिक लाभ पर साझेदारी फल-फूल नहीं सकती। निर्विवाद रूप से यह तथ्य तार्किक है कि मुक्त व्यापार समझौते की राह अभी भी बाधाओं से पूरी तरह से मुक्त नहीं हो पायी है। उल्लेखनीय है कि टैरिफ, बौद्धिक संपदा और श्रम गतिशीलता के मुद्दे पर मतभेद अभी भी बने हुए हैं। वहीं दूसरी ओर मूल्य आधारित कूटनीति पर भारतीय प्राथमिकता को लेकर दोनों देशों में मतभेद सामने आ सकते हैं। साथ ही यह भी जरूरी है कि दोनों पक्षों को पुरानी कसक से प्रेरित कूटनीति से आगे बढ़ने की जरूरत होगी। निर्विवाद रूप से विशेष संबंध औपनिवेशिक हैंगओवर या प्रवासी भावना पर आधारित नहीं हो सकते। इस साझेदारी का वायदा एक ऐसे सतत सहयोग के निर्माण में निहित है, जिसमें दोनों देशों के आम नागरिकों को वास्तविक लाभ मिल सके। भारत की चिंता ब्रिटेन की भूमि से भारत विरोधी गतिविधियों को अंजाम देने वाले तत्वों पर अंकुश लगाने को लेकर भी है। निश्चय ही अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब अराजकता नहीं हो सकता। हाल के दिनों में कुछ अप्रिय घटनाएं भारतीय लोकतंत्र के प्रतीकों पर प्रहार करने के रूप में सामने आ चुकी हैं।