प्रकृति का रौद्र
जीवनदायी पानी जब अपने विकराल रूप में सामने आता है तो कितना घातक व विनाशकारी हो जाता है, इस बार की मूसलाधार मानसूनी बारिश ने हमें बता दिया है। लोग अब पानी के आवेग को देखकर डरने लगे हैं। हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर व पूर्वोत्तर के हिमालयी राज्यों में बादल फटने, हिमस्खलन और मलबे के सैलाब की जो घटनाएं सामने आई हैं, उन्होंने हर किसी को भयभीत किया है। हालात ने बताया है कि हमेशा शांत रहने वाले पहाड़ भी कितना रौद्र रूप दिखा सकते हैं। इस अतिवृष्टि से सड़कों, पुलों व स्थायी संरचनाओं को भारी नुकसान पहुंचा है। खेतों में खड़ी फसलें तबाह हो गई हैं। जम्मू में वैष्णो देवी मार्ग पर भूस्खलन से कुछ श्रद्धालुओं की मौत दुखद घटना है। बांधों से आया अतिरेक पानी रावी, ब्यास व सतलुज को विकराल बना गया, जिससे पंजाब के करीब एक दर्जन जिले जलमग्न हो गए हैं। हजारों एकड़ फसलें बर्बाद हो गई हैं। पुल बहने व सड़कें तबाह होने से जन-जीवन पंगु बनकर रह गया है। पहाड़ों के लोग हैरत में हैं कि अचानक बादल फटने की घटनाओं में ये अप्रत्याशित वृद्धि कैसे हुई है। क्या कुदरत नाराज है? क्या ये गहराते ग्लोबल वार्मिंग संकट की देन है? दरअसल, हमारे नीति-नियंता पहाड़ों के पारिस्थितिकीय तंत्र की संवेदनशीलता को महसूस नहीं करते। भूल जाते हैं कि पहाड़ों का विकास मैदानी मॉडल पर नहीं किया जा सकता। साथ ही राज्यों तथा केंद्रशासित प्रदेशों के अधिकारियों की आधी-अधूरी तैयारियां भी संकट बढ़ाने वाली साबित हुई हैं। उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय में दायर एक हलफनामे में, हिमाचल सरकार ने स्वीकार किया है कि पारिस्थितिक असंतुलन से निपटने के मौजूदा उपायों में कमियां रही हैं। राज्य ने इस स्थिति से निपटने के लिये एक ‘व्यापक भावी कार्य योजना’ तैयार करने के लिये कम से कम छह माह का वक्त मांगा है। विडंबना यह है कि प्राकृतिक आपदाओं को कम करने की तंत्र में कोई तात्कालिकता नजर नहीं आती। फिर इन आपदाओं का खमियाजा वे लोग उठाते हैं, जिनका इस स्थिति को पैदा करने में कोई रोल नहीं होता।
निस्संदेह, प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति वनों की कटाई, अनियमित विकास तथा जलवायु परिवर्तन के कारकों की वजह से तेज हुई है। वास्तव में मौजूदा स्थितियों में जो कुछ करने की जरूरत है, वो किसी भी तरह कोई रॉकेट साइंस नहीं है। इस संकट के मुकाबले के लिये वैज्ञानिक व प्रशासनिक व्यवस्था की गहरी समझ रखने वाले विशेषज्ञों को शामिल करने की जरूरत है। उनकी राय और सलाह नीति-निर्माताओं का मार्गदर्शन करेगी। सरकारों को राजनीतिक और व्यावसायिक हितों को दरकिनार करते हुए, पर्यावरण संवर्धन के लिये काम करना चाहिए। हिमाचल सरकार की पहल सराहनीय है, जिसमें संकट को बढ़ाने वाली खामियों की पहचान करने हेतु अधिकारियों, विषय विशेषज्ञों और सामुदायिक प्रतिनिधियों का एक कोर ग्रुप बनाने में उत्सुकता दिखायी गई है। वहीं दूसरी ओर जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने जोखिमों को कम करने के उपायों पर विचार-विमर्श करने हेतु विशेषज्ञों से परामर्श का आह्वान किया है। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि कोर ग्रुप या समितियों की सिफारिशों को गंभीरता से लागू किया जाना चाहिए। अन्यथा पूरी प्रक्रिया का उद्देश्य ही विफल हो जाएगा। हमें अतीत के अनुभवों से सबक लेने की भी जरूरत है। स्वतंत्रता दिवस के संबोधन में भी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आपदाओं के बाद बचाव, राहत व पुनर्वास में राज्य सरकारों तथा केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों के समन्वय की प्रशंसा की थी। हालिया आपदाओं के मद्देनजर ऐसा तालमेल अपरिहार्य है। जिससे आपदाओं से लोगों की आजीविका और बुनियादी ढांचे का नुकसान कम से कम किया जा सके। प्राकृतिक आपदाओं की पूर्व चेतावनी प्रणाली में सुधार करना समय की जरूरत है। निस्संदेह, खतरे के जरा से भी संकेत मिलने पर प्रभावित क्षेत्रों में लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाने में तनिक भी देरी नहीं की जानी चाहिए। साथ ही प्रभावित राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों को आपस में मिलकर प्राकृतिक आपदाओं से जुड़ी जानकारी परस्पर साझा करनी चाहिए। वहीं पर्यावरण अनुकूल उपायों को भी बढ़ावा देना चाहिए। निस्संदेह, दुनिया की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था प्राकृतिक आपदाओं के प्रकोप से होने वाली जन-धन की हानि को बर्दाश्त नहीं कर सकती है।