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अपनों का कत्ल

संवेदनहीनता के दौर की निर्ममता
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हताशा में हत्याएं
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यूं तो हर रोज कई ऐसी खबरें विचलित करती हैं, जिसमें इंसानी रिश्तों का कत्ल होता है। लेकिन कुछ घटनाएं इतनी हृदयविदारक व वीभत्स होती हैं कि हर संवेदनशील व्यक्ति दुख व करुणा से स्तब्ध रह जाता है। पिछले दिनों दिल्ली की उस घटना ने विचलित किया, जिसमें आक्रोशित युवक ने पिता,मां व बहन की हत्या गुस्से में आकर कर दी। वहीं शनिवार को हरियाणा के शाहबाद की उस घटना ने हर किसी को झकझोरा, जिसमें पैसे के लेन-देन को लेकर कुछ लोगों द्वारा उत्पीड़ित किए जाने पर एक व्यक्ति ने अपने माता-पिता, पत्नी की निर्मम हत्या करने के बाद खुदकुशी कर ली। उसने कोशिश तो अपने किशोर पुत्र की हत्या की भी की लेकिन संयोगवश वह बच गया। इस दिल दहला देने वाली घटना के बाद जो सुसाइड नोट मिला है, उसमें अपनों की हत्या करने वाले व्यक्ति ने आठ लोगों द्वारा रुपयों के लेन-देन के लिये उत्पीड़ित करने का आरोप लगाया है। पुलिस ने आठ लोगों के खिलाफ विभिन्न धाराओं में मुकदमा दर्ज भी किया है। अब भले ही हत्यारे व्यक्ति को रुपयों के लेन-देन को लेकर विकट स्थितियों का सामना करना पड़ रहा हो, लेकिन उसे इससे जन्म देने वाले माता-पिता व पत्नी की हत्या करने का अधिकार तो नहीं मिल जाता। आखिर उसके परिजनों का क्या कसूर था जिन्हें अकारण उसने मौत के घाट उतार दिया। दरअसल, ऐसे मामलों में अकसर देखने में आता है कि विकट परिस्थितियों में बेहद तनाव की स्थितियों से गुजर रहा व्यक्ति इतना हताश हो जाता है कि अपने प्रियजनों को किसी अपमानजनक स्थिति से बचाने के लिये उनकी जीवन लीला समाप्त करना अंतिम विकल्प समझ लेता है। इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि कई व्यक्ति वास्तविक आर्थिक स्थितियों का आकलन किए बिना ऐसे कदम उठा लेते हैं कि उसकी प्रतिपूर्ति करना मुश्किल हो जाता है। दरअसल संकट से गुजरते व्यक्ति में मुश्किल हालातों से मुकाबले का ऐसा धैर्य ही नहीं रहता है कि उससे उबारने का रास्ता खोज सके। ऐसे में मौत को गले लगाना ही उसे अंतिम विकल्प नजर आता है।

दरअसल, हमारे समाज में आज महत्वाकांक्षाओं और भौतिक संसाधन जुटाने का इस कदर जुनून हावी है कि आसन्न संकट का आकलन किए बिना व्यक्ति कर्ज के जाल में फंस जाता है। वहीं दूसरी ओर हमारे समाज में आर्थिक लिप्साओं के उफान के दौर में लोग इतने संवेदनहीन हो चले हैं कि व्यक्ति की दुखती रग पर हाथ रखकर भयादोहन करने लगते हैं। निश्चित रूप से ये विकट स्थितियां मानवीय मूल्यों के पराभव को भी दर्शाती हैं। शाहाबाद की हृदय विदारक घटना के लिये जिन लोगों को दोषी बताया जा रहा है, उन्होंने भी इतना रहम नहीं दिखाया कि यह परिवार उजड़ने से बच जाए। चंद रुपयों को वसूलने के क्रम में लोग किस हद तक गिर सकते हैं, यह घटनाक्रम उसकी बानगी है। एक समय था कि लोग ऐसे संकट में फंसे व्यक्ति की मदद के लिये खड़े होते थे। हमारा सामाजिक स्वरूप ऐसा था कि गांव-मोहल्ले के लोग एक-दूसरे का दुख-दर्द बांट लेते थे। आज हर तरफ लोग पैसे के पीर बन गए हैं। शहरों में लोगों में ऐसी संवेदनशीलता नजर नहीं आती है कि दूसरे व्यक्ति या परिवार को संकट में फंसा देखकर आर्थिक संबल देकर या मनोबल बढ़ाकर उसे सांत्वना दें। ऐसे में जब व्यक्ति अपनी व अपने परिवार की मर्यादा व सम्मान गर्दिश में देखता है, तो वह आत्मघात को संकट का आखिरी समाधान मान लेता है। यह नये दौर की सामाजिक विकृति ही है कि अपनों का कत्ल करने से कोई गुरेज नहीं करता। सवाल यह भी है कि संकट कितना बड़ा क्यों न हो, आखिर कैसे कोई जन्म देने वाली मां का कत्ल कर सकता है? कैसे उस पिता को मार देता है, जिसने उसका जीवन सींचा है? कैसे उस पत्नी की हत्या कर देता है जिसकी रक्षा का संकल्प उसने सात फेरे लेते वक्त लिया था? निस्संदेह, समाज में पनपती यह संवेदनहीनता, निर्ममता, क्रूरता हमारे समाज विज्ञानियों के लिये मंथन का विषय है। आखिर क्यों किसी सभ्य समाज में ऐसी विकृतियां पनप रही हैं? यह हमारे समाज के लिये खतरे की घंटी है। जिसे सुना जाना चाहिए।

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