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निशाने पर मुजीब

अलोकतांत्रिक करतूतों पर फिर सोचे ढाका
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बांग्लादेश में उग्र छात्र आंदोलन के बाद जो स्थितियां बनी हैं वे न तो इस देश के हित में हैं और न ही लोकतांत्रिक मूल्यों के पक्ष में। जनविद्रोह की स्थितियों के बीच तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख हसीना के पलायन के बाद लगातार बांग्लादेश के संस्थापक बंगबंधु मुजीबुर्रहमान के खिलाफ माहौल बनाया जा रहा है। जिसकी शुरुआत तब देखने को मिली, जब अंतरिम सरकार के मुख्य सलाहकार मोहम्मद यूनुस ने पिछले साल 16 दिसंबर को बिजॉय दिबोश यानी विजय दिवस के मौके पर दिए गए संबोधन में युवा राष्ट्र के संस्थापक कहे जाने वाले शेख मुजीबुर रहमान का उल्लेख तक नहीं किया। उल्लेखनीय है कि यह दिवस भारत में भी विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह दिन वर्ष 1971 में जहां भारतीय रक्षा बलों के सामने पाकिस्तान की विशाल सेना के आत्मसमर्पण की याद दिलाता है, वहीं बांग्लादेश के दमन व अत्याचार से मुक्ति का भी दिन है। इस संदर्भ में मोहम्मद यूनुस ने जहां अपदस्थ प्रधानमंत्री शेख हसीना के शासन को दुनिया के सबसे बुरे निरंकुश शासन के रूप में वर्णित किया, वहीं मुजीबुर्रहमान की पूरी तरह अवहेलना की। निश्चित रूप से यह देश के संस्थापक की उपेक्षा के साथ ही स्वतंत्रता आंदोलन में आहुति देने वाले स्वतंत्रता सेनानियों का भी अपमान है। दरअसल, राजनीतिक दुराग्रह के चलते अंतरिम सरकार शेख हसीना के पिता की विरासत को भले ही मिटा न सके,लेकिन वो इसे कमजोर करने पर जरूर अमादा है। यहां तक कि शैक्षिक पाठ्यक्रम से भी छेड़छाड़ की जा रही है। कहा जा रहा है कि कार्यवाहक सरकार बांग्लादेश के प्राथमिक व माध्यमिक स्कूलों के पाठ्यक्रम में बताएगी कि देश को आजाद कराने में मुजीबुर्रहमान ने नहीं बल्कि जियाउर रहमान ने निर्णायक भूमिका निभाई थी। उन्होंने ही बांग्लादेश को स्वतंत्र करने की घोषणा की थी। इस तरह अराजकता व अल्पसंख्यकों पर हमलों के बीच नये विमर्श गढ़ने की कोशिश की जा रही है।

दरअसल, अंतरिम सरकार और कट्टरपंथी तत्व जनाक्रोश के चलते अपनी सुविधा का मुहावरा गढ़ने का प्रयास कर रहे हैं। निश्चित रूप से बांग्लादेश मुक्ति अभियान के दौरान जियाउर रहमान एक सम्मानित सैन्य अधिकारी थे। बताया जा रहा है कि उन्होंने 1971 के युद्ध में विशिष्टता के साथ सेवाएं दी थी। वे कालांतर बांग्लादेश के राष्ट्रपति भी बने थे। अपदस्थ सरकार के कर्ताधर्ता दलीलें दे रहे हैं कि उनके योगदान को राष्ट्र द्वारा उचित रूप से सम्मान देना चाहिए। लेकिन हकीकत यह भी है कि इसके जरिये मुजीबुर्रहमान के योगदान को कम करने की कोशिशें भी की जा रही हैं। जिसे किसी भी स्थिति में स्वीकार करना अनुचित ही होगा। दरअसल, यह सिर्फ सत्ता के केंद्र में आए व्यक्तियों की बयानबाजी तक ही सीमित नहीं है बल्कि बांग्लादेश में मुजीब के चित्र वाले नोटों को भी चरणबद्ध तरीके से बंद करने की कुत्सित कोशिशें की जा रही हैं। निश्चित रूप से गलत दिशा में कदम बढ़ाया जा रहा है। इसमें दो राय नहीं कि तमाम निर्णय कहीं न कहीं राजनीतिक दुराग्रहों से प्रेरित हैं। इसके बावजूद कि बांग्लादेश में कार्यवाहक सरकार खुद को बार-बार अराजनीतिक कहने से नहीं चूकती। यहां उल्लेखनीय है कि जियाउर रहमान की विधवा और पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया, फिलहाल बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी यानी बीएनपी की प्रमुख हैं। जिसके साथ कार्यवाहक सरकार के मधुर रिश्ते हैं। वहीं सत्ता हासिल करने को बेताब बीएनपी चुनाव में हो रही देरी से भी बेचैन हो रही है। दरअसल, सरकार पर उन छात्र नेताओं का भी बड़ा दबाव है, जिन्होंने शेख हसीना के खिलाफ हुए आंदोलन का नेतृत्व किया था। जिसके बाद शेख हसीना को बांग्लादेश छोड़कर भागना पड़ा था। कालांतर उन्होंने भारत में शरण ली थी। असल में, छात्र नेता दबाव बना रहे हैं कि वर्ष 1972 के बांग्लादेश के संविधान को फिर लिखा जाए। वे संविधान को मुजीबिस्ट चार्टर बता रहे हैं। आरोप है कि इसी ने भारत की आक्रामकता का मार्ग प्रशस्त किया। निश्चित रूप से मुजीब विरोधी आख्यान और भारत विरोधी बयानबाजी मिलकर बांग्लादेश की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं पर पानी फेर सकती हैं। ढाका को सलाह दी जानी चाहिए कि न तो वो दिल्ली से रिश्ते खराब करे और न ही मुजीब को इतिहास के कबाड़ के हवाले करे।

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