75वें वर्ष में मोदी
पिछले ग्यारह वर्षों में देश का नेतृत्व करते हुए हासिल उपलब्धियां, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 75वें जन्मदिन की सार्थकता को दर्शाती हैं। ऐसे में यह उनकी महज व्यक्तिगत उपलब्धि न होकर व्यापक राष्ट्रीय सरोकारों से जुड़ती है। गत बुधवार को, उन्होंने इस खास मौके पर स्वदेशी वस्तुओं की खरीद का पुरजोर समर्थन किया। जो तमाम अंतर्राष्ट्रीय दबावों के बीच अपनी अर्थव्यवस्था को संबल देने का सहज-सरल विकल्प भी है। उनका देश के एक सौ चालीस करोड़ देशवासियों से आग्रह रहा है कि–‘आप जो भी खरीदें, वह हमारे देश में बना होना चाहिए।’ उन्होंने इस आह्वान को अपने ही अंदाज में कहा कि वह उत्पाद ‘किसी भारतीय के पसीने से बना होना चाहिए।’ इसमें दो राय नहीं कि उनका ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’, ‘आत्मनिर्भर भारत : विकसित भारत’ का आह्वान उनके अल्पकालिक और दीर्घकालिक लक्ष्यों को ही परिभाषित करता है। हाल में किए गए जीएसटी सुधार, आम लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिये दिशा-निर्देश देना, उनकी आकांक्षाओं को ही उजागर करता है। इसमें दो राय नहीं कि उनकी सरकार द्वारा आरंभ की गई लक्षित कल्याणकारी योजनाओं से विशेष रूप से समाज की अंतिम पंक्ति पर खड़े वंचित समाज के लोगों को लाभ जरूर हुआ है। निर्विवाद रूप से 75वां जन्मदिन मनाते हुए भी वे निरंतर ऊर्जा से भरपूर राजनेता के रूप में नजर आते हैं। उन्होंने देश के सामने आई कठिन चुनौतियों के वक्त जिस दृढ़ता का परिचय दिया, वह आम नागरिक को संबल देने वाला रहा। अब चाहे एक सदी बाद आई कोविड-19 की महामारी हो, भारत-चीन सीमा का गतिरोध हो या उरी-पुलवामा-पहलगाम के आतंकी हमले हों। उन्होंने राष्ट्रीय हितों को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए दृढ़ता ही दिखाई है। जिसकी दुनिया के प्रमुख राजनेताओं ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। ऐसा इसलिए भी संभव हुआ क्योंकि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र ने उनके नेतृत्व में विश्वास किया। यही वजह है कि वे विश्व के तमाम मंचों पर 140 करोड़ देशवासियों का संबल मिलने की बात किया करते हैं।
सर्वविदित है कि विश्व की महाशक्ति अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जिस आक्रामक ढंग से टैरिफ हमला किया और रूस से कच्चा तेल खरीदना बंद करने के लिये जैसा दबाव बनाया, प्रधानमंत्री की दृढ़ता के चलते ही वह विफल रहा है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि प्रधानमंत्री राष्ट्रीय हितों के मद्देनजर अपनी बात पर अड़े रहे। उन्होंने दबाव के आगे झुकने से इनकार कर दिया। आज की युद्ध से त्रस्त दुनिया में, उन्होंने महाशक्तियों से दोटूक शब्दों में कहा भी कि यह युद्ध से समस्या समाधान का समय नहीं है। उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी को यह अहसास दिलाया है कि भारत का वैश्विक आचरण वसुधैव कुटुम्बकम् यानी विश्व एक परिवार है, के सिद्धांत पर आधारित है। उनकी मजबूत अभिव्यक्ति ने भारत ही नहीं ग्लोबल साउथ के देशों की आवाज को बुलंदी दी है। प्रधानमंत्री ने फिलहाल सेवानिवृत्ति की बहस को विराम देते हुए, तेजी से उभरते इस देश को नये जोश से आगे बढ़ाने के अपने संकल्प को दोहराया है। हालांकि, उनका मानना है कि अभी हमें कुछ बाधाओं को पार करना है। लेकिन यह एक निर्विवाद सत्य है कि भारत की आत्मनिर्भरता और वैश्विक प्रभुत्व की महत्वाकांक्षी यात्रा भारत की मूल भावना यानी शांति, सद्भाव और एकजुटता की भावना पर टिकी है। जिसमें अभिव्यक्ति की आजादी, मीडिया की स्वतंत्रता, समावेशी समाज तथा ‘सबका साथ, सबका विकास’ के मंत्र का जमीनी हकीकत बनना भी अपरिहार्य है। भारत एक विविध संस्कृतियों और भाषा-धर्म का गुलदस्ता है, जिसकी महक से मजबूत भारत की संकल्पना हकीकत बनती है। जिसका हकीकत बनना उनके संकल्पों पर निर्भर करता है। तभी हम दुनिया से कह सकते हैं कि सबसे बड़ा लोकतंत्र वास्तव में लोकतांत्रिक मूल्यों को जीता है। तभी दुनिया की सबसे तेज अर्थव्यवस्था का वास्तविक लाभ समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुंच पाएगा। निस्संदेह, किसी भी देश का सर्वांगीण विकास उसके नेतृत्व की क्षमता, सकारात्मकता और अपने नागरिकों को उत्साह से भरने वाले जज्बे पर निर्भर करता है। यह वक्त की जरूरत भी है।